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प्रताप सिंह बनारस जाकर रामानंद जी के शिष्य बने तब रामानंद जी ने उन्हें कहा कि तू लोकहितार्थ प्रेम रस पी और दूसरों को भी पिला तभी से प्रताप सिंह संत पीपाजी कहलाने लगे।
संत पीपा जी ने गौ रक्षा हेतु फिरोज़ शाह तुगलक की सेना से भी युद्ध किया।
ईश्वर भक्ति को मोक्ष प्राप्ति का मार्ग मानते हुए वैष्णो धर्म का प्रचार किया इसी कारण वे राजस्थान में भक्ति आंदोलन के प्रथम संत कहलाते हैं।
संत पीपा जी को दर्जी समुदाय के लोग अपना आराध्य देवता मानते हैं ।संत पीपा जी का मंदिर समदड़ी ग्राम (बाड़मेर) में है जहा पिपा पंथी दर्जी समुदाय का प्रति वर्ष चैत्र शुक्ल पूर्णिमा को विशाल मेला आयोजित किया जाता है पिपाजी ने अपना अंतिम समय टोक जिले के टोडा ग्राम में स्थित एक गुफा में भजन करते हुए व्यतीत किया जहां पर चैत्र कृष्ण नवमी को देवलोक( मृत्यु )को प्राप्त हुए वह गुफा आज संत पीपा की गुफा (तहसील- टोडारायसिंह जिला- टोंक) के नाम से जानी जाती है संत पीपा जी की छतरी कालीसिंध नदी के किनारे गागरोन दुर्ग झालावाड़ में स्थित है ,जहां उनके चरण पूजा होती है
पीपाजी, जिन्हें पीपा बैरागी के नाम से भी जाना जाता है, 14वीं-15वीं शताब्दी के एक प्रसिद्ध संत और कवि थे। वे गागरोन (झालावाड़, राजस्थान) के एक क्षत्रिय राजा थे, जिन्होंने बाद में भक्ति आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनका मूल नाम प्रताप सिंह था।
पीपाजी का जीवन परिचय:
जन्म और परिवार:
पीपाजी का जन्म गागरोन में 14वीं शताब्दी के अंत में (विक्रम संवत 1380, 1323 ईस्वी) में हुआ था।
भक्ति की ओर झुकाव:
युवावस्था से ही पीपाजी का झुकाव आध्यात्म की ओर था। उन्होंने रामानंद से दीक्षा ली और भक्ति मार्ग अपनाया।
संत जीवन:
राजपाट त्यागने के बाद, पीपाजी ने रामानंद के शिष्य के रूप में भक्ति और समाज सुधार का मार्ग अपनाया।
साहित्यिक योगदान:
पीपाजी ने कई भजन, साखियां और दोहे लिखे हैं, जो आज भी प्रसिद्ध हैं।
मृत्यु:
पीपाजी ने अपना अंतिम समय टोडा (टोंक, राजस्थान) में एक गुफा में बिताया, जहाँ 1473 ईस्वी में उनकी मृत्यु हो गई।