25.1.24

श्री पीपा क्षत्रिय दर्जी समाज का इतिहास-pipa darji samaj history


श्री पीपा क्षत्रिय दर्जी समाज का इतिहास



गुरू पीपाजी उन्होंने राजभवन में मंदिरगुरु नानक देव जी महाराज के अवतार धारण से कोई ४३ वर्ष पहले गगनौर (राजस्थान) में एक राजा हुए, जिसका नाम पीपा जी था | अपने पिता की मृत्यु के बाद वह राज तख्त पर विराज मान हुए| वह युवा तथा सुन्दर राजकुमार थे | वजीरों की दयालुता के कारण वह कुछ वासना वादी हो गए तथा उनहोने अच्छी से अच्छी रानी के साथ विवाह किया| इस तरह उनकी दिलचस्पी बढ़ती गई तथा बारह राजकुमारियों के साथ विवाह कर लिया| उनमें से एक रानी जिसका नाम सीता था, अत्यंत सुन्दर थी, उसकी सुन्दरता तथा उनके हाव-भाव पर राजा इतने मोहित हुए कि दीन-दुनिया को ही भूल गए | वह उसके साथ ही प्यार करते रहते, जिधर जाते उन्ही को देखते रहते | वह भी राजा से अटूट प्यार करती | जहां पीपा राजा थे और राजकाज के अतिरिक्त स्त्री रूप का चाह वान था, वहीं देवी दुर्गा के भी उपासक थे, उसकी पूजा करते रहते | दुर्गा की पूजा के कारण अपने राजभवन में कोई साधुओं तथा भक्तों को बुला कर भजन सुनता और भोजन कराया करते थे | राज भवन में ज्ञान चर्चा होती रहती | उस समय रानियां भी सुनती तथा साधू और ब्राह्मणों का बड़ा आदर करतीं, उनका सिलसिला इसी तरह चलता गया | यह सिलसिला इसीलिए था कि उसके पूर्वज ऐसा करते आ रहे थे तथा कभी भी पूजा के बिना नहीं रहते थे| उन्होंने राजभवन में मंदिर बनवा रखा था| उस समय भारत में वैष्णवों का बहुत बोलबाला था| वह मूर्ति पूजा के साथ-साथ भक्ति भाव का उपदेश करते थे| शहर में वैष्णवों की एक मण्डली आई| राजा के सेवकों ने उनका भजन सुना तथा राजा के पास आकर प्रार्थना की-महाराज! शहर में वैष्णव भक्त आए हैं, हरि भक्ति के गीत बड़े प्रेम तथा रसीली सुर में गाते हैं| यह सुन कर राजा ने उनके दर्शन के लिए इच्छा व्यक्त की| उन्होंने अपनी रानियों से कहा | रानी सीता बोली, ‘महाराज! इससे अच्छा और क्या हो सकता है? अवश्य चलो|’ राजा पीपा पूरी सलाह तथा तैयारी करके संत मण्डली के पास गए | उन्होंने हाथ जोड़ कर प्रार्थना की कि ‘हे भक्त जनो! आप मेरे राजमहलों में चरण डाल कर पवित्र करें| तीव्र इच्छा है कि भगवान महिमा श्रवण करें तथा भोजन भंडारा करके आपकी सेवा का लाभ प्राप्त हो| कृपा करें प्रार्थना स्वीकार करो|’ संत मण्डली के मुखीया ने आगे से उत्तर दिया-‘हे राजन! यदि आपकी यही इच्छा है तो ऐसा ही होगा| सारी मण्डली राज भवन में जाने को तैयार है| भंडारे तथा साधुओं के लिए आसन का प्रबन्ध करो|’ पीपा एक राजा थे | उन्होंने तो आदेश ही देना था| सेवकों को आदेश दिया| सारे प्रबन्ध हो गए| एक बहुत खुली जगह में फर्श बिछ गए तथा संत मण्डली के बैठने का योग्य प्रबन्ध किया| भोजन की तैयार भी हो गई| संत मण्डली ने ईश्वर उपमा का यश किया| भजन गाए तो सुन कर पीपा जी बहुत प्रसन्न हुए| संत भी आनंद मंगलाचार करने लगे, पर जब संतों को पता लगा कि राजा सिर्फ मूर्ति पूजक तथा वासनावादी है तो उनको कुछ दुःख हुआ| उन्होंने राजा को हरि भक्ति की तरफ लगाना चाहा| उन्होंने परमात्मा के आगे शुद्ध हृदय से आराधना की कि राजा दुर्गा की मूर्ति की जगह उसकी महान शक्ति की पुजारी बन जाए| जैसे सतिगुरु जी का हुक्म है –
हम ढाढी हरि प्रभ खसम के नित गावह हरि गुन छंता||
हरि कीरतनु करह हरि जसु सुणह तिसु कवला कंता||
हरि दाता सभु जगतु भिखारीआ मंगत जन जंता||
हरि देवहु दानु दइआल होइ विचि पाथर क्रिम जंता||
जन नानक नामु धिआईआ गुरमुखी धनवंता||२०||
उन हरि भक्तों की प्रार्थना प्रभु परमात्मा ने सुनी| राजा पीपा को अपना भक्त बनाने के लिए नींद में एक स्वप्न द्वारा प्रेरित किया| उस सपने की प्रेरणा से राजा पर विशेष प्रभाव पड़ा| राजा को स्वप्न आना भक्त मण्डली में से उठ कर राजा पीपा अपने आराम करने वाले शीश महल में आ गए | वह अपनी रानी सीता के पास सो गए, जैसे पहले वह सोया करते थे | उसकी शैय्या मखमली थी तथा उस पर विभिन्न प्रकार के फूल और खुशबू फैंकी हुई थी| उसको दीन दुनिया का ज्ञान नहीं था| उस रात राजा को एक स्वप्न आया| वह स्वप्न इस तरह था – स्वप्न में जैसे राजा अपनी रानी सीता के साथ प्रेम-क्रीड़ा कर रहे थे | वह बड़ी मस्ती के साथ बैठे थे कि शीश महल के दरवाज़े अपने आप खुल गए, उनके खुलने से एक डरावनी सूरत आगे बढ़ी, जैसे कि राजा ने सुना था कि दैत्य होते हैं तथा दैत्यों की सूरत के बारे में भी सुना था, वैसी ही सूरत उस दैत्य की थी| राजा डर गया तथा उसके मुंह से निकला, ‘दैत्य आया! वह तो नरसिंघ के जैसा था| राजा के पास आकर उस भयानक शक्ति ने कहा – ‘हे राजा! सुन लो! दुर्गा की पूजा न करना, नहीं तो तुम्हारी मृत्यु हो जाएगी|’ ऐसा संदेश दे कर वह शक्ति पीछे मुड़ गई तथा दरवाज़े के पास जाकर अदृश्य हो गई| उसके जाने के पश्चात राजा इतने भयभीत हए कि उसकी नींद खुल गई| शरीर पसीने से लथपथ था तथा उन्होंने अपनी पत्नी सीता को जगाया, जो कि आराम से सुख की नींद सोई थी| ‘हे रानी! उठो, शीघ्र उठो|’ रानी उठी तथा उसने हाथ जोड़ कर प्रार्थना की, हे नाथ! क्या आज्ञा है? पीपा-‘आओ! दुर्गा के मंदिर चलें|’ सीता-‘इस समय नाथ! अभी तो आधी रात है|’ पीपा-‘कुछ भी हो! अभी जाना है, चलो! मेरा हृदय धड़क रहा है| बहुत भयानक स्वपना है|’ पतिव्रता नारी सीता उठी| राजा के साथ चली तथा दोनों मंदिर पहुंचे| राजा पीपा ने जाते ही दुर्गा देवी की मूर्ति के आगे स्वयं को समर्पित किया तथा आगे से आवाज़ आई| ‘मैं पत्थर हूं-हरि भक्ति के लिए संतों के साथ लगन लगाओ| …भाग जाओ|’ ऐसा कथन सुन कर राजा उठ बैठे| वह एक तरह से डर गए थे | वह सीता को साथ लेकर वापिस अपने महल आ गए| संतों से बात करते दिन निकल गए तथा सुबह हुई तो स्नान करके पूजा की समाग्री लेकर संतों को मिलने जाने के लिए तैयार हो गए|
संतों से मिलन संत उधरन दइआलं आसरं गोपाल कीरतनह||
निरमलं संत संगेन ओट नानक परमेसुरह||२||
स्वप्न में हुए कथन से राजा के जीवन में एक बहुत बड़ा परिवर्तन आया| वह तो आहें भरने लगे| माता दुर्गा के मंदिर का पुजारी आया| उसने प्रार्थना की| राजा ने माता दुर्गा के मंदिर में जाने से इन्कार कर दिया तथा संतों की तरफ चल पडे| जितनी जल्दी हो सका, वह उतनी जल्दी पहुंच गए तथा संतों के मुखिया के पास जा कर विनती की कि ‘महाराज! मुझे हरि नाम सिमरन का मार्ग बताएं| आपके दर्शन करने से मेरे मन में वैराग उत्पन्न हो गया है| रात को नींद नहीं आती, न दिन में चैन है| कृपा करो| हे दाता! मैं तो एक भिखारी हूं|’ राजा की ऐसी व्याकुलता देख कर संतों के मन में दया आई, वह कहने लगे -‘हे राजन! यह तो परमात्मा की अपार कृपा है जो आपको ऐसा वैराग उत्पन्न हुआ| पर जिसने बख्शिश करनी है, वह यहां नहीं है, वह तो काशी में है, उनका नाम है गुरु रामानंद गुसाईं| उनके पास चले जाओ|’ यह सुन कर राजा ने अपनी रानी सीता सहित काशी जाने की तैयार कर ली| वह काशी की तरफ चल पढे थे | उसका मन बेचैनी से इस तरह पुकार रहा था –
मेलि लैहु दइआल ढहि पए दुआरिआ||
रखि लेवहु दीन दइआल भ्रमत बहु हारिआ||
भगति वछलु तेरा बिरदु हरि पतित उधारिआ||
तुझ बिनु नाही कोई बिनउ मोहि सारिआ||
करु गहि लेहु दइआल सागर संसारिआ||
राजा पीपा की ऐसी अवस्था हो गई, वह अधीनता से ऐसे निवेदन करने जाने लगे-हे दाता! कृपा करके दर्शन दीजिए मैं कंगाल आपके द्वार पर आकर नतमस्तक पड़ा हूं, अब और तो कोई आसरा नहीं| कृपा करो, प्रभु! हे दातार! आप भक्तों के रक्षक मालिक हो, आपका विरद पतितों का उद्धार करना है| आपके बिना कोई नहीं, आप दातार हो, अपना हाथ देकर मेरी लाज रखो तथा भव-सागर से पार करो! दया करो दाता, आपके बिना कोई भव-सागर से पार नहीं कर सकता| …ऐसी व्याकुल आत्माओं के लिए सतिगुरु महाराज की बाणी है इस तरह बेचैनी से प्रभु की तरफ ध्यान करता हुआ पीपा चल पढ़े | उनको ऐसी लगन लगी कि उनको सीता के तन का प्यार भी कम होता नज़र आने लगा| वह ध्यान में मग्न काशी पहुंच गए| त्रिकालदर्शी स्वामी रामानंद भी प्रात:काल गंगा स्नान करने जाते थे| जब गंगा स्नान करके आ रहे थे तो उन्होंने सुना कि गढ़ गागरोन का राजा पीपा भक्त काशी में आया है तथा उनको ही ढूंढ रहा है| उन्होंने यह भी देखा कि उनके आश्रम के पास शाही ठाठ थी| हाथी, घोड़े, छकड़े तथा तम्बू लगे थे| सेवक से पूछा तो उसने भी कहा – ‘महाराज! गढ़ गागरोन का राजा आया है|’ स्वामी जी ने आश्रम के बाहर वाले फाटक को बंद करवा दिया तथा आज्ञा की कि ‘दर्शन के लिए आज्ञा लिए बिना कोई न आए| इस तरह ताकीद की, उस पर अमल हो गया| राजा पीपा जब दर्शनों के लिए चले तो फाटक बंद मिला और आगे से जवाब मिला, ‘गुरु की आज्ञा लेना आवश्यक है, ऐसा करना होगा |’ आज्ञा प्राप्त करने के लिए सेवक गया| वह वापिस आया तो उसने संदेश दिया – ‘हे राजन! स्वामी जी आज्ञा करते हैं, हम गरीब हैं, राजाओं से हमारा क्या मेल, अच्छा है वह किसी मंदिर में जाकर लीला करें, राजाओं से हमारा मेल नहीं हो सकता|’ राजा पीपा की उत्सुकता काफी बढ़ चुकी थी| उन्होंने उसी समय हुक्म दिया, ‘जो कुछ पास है, सब बांट दिया जाए| हाथी, घोड़े, सामान मंत्री वापिस ले जाएं तथा तीन कपड़ों में सीता तथा हम रहेंगे|’ पीपा के कर्मचारियों ने ऐसा ही किया| सीता तथा राजा के सिर्फ तन के वस्त्र रह गए| हाथी, घोड़े, तम्बू सब वापिस भेज दिए| धन पदार्थ गरीबों को बांट दिया| प्यार रखा प्रभु से| उत्सुकता कायम रखी हृदय में| फाटक के आगे जा खढे हए| फिर प्रार्थना करके भेजी, ‘महाराज आपके दर्शन की अभिलाषा, आत्मा बहुत व्याकुल है|’ स्वामी जी ने अभी और परीक्षा लेनी थी कि कहीं यूं ही तो नहीं करता| उन्होंने कह कर भेजा, ‘बहुत जल्दी में है तो कुएं में छलांग जा मारे|’ वहां से जल्दी ही परमात्मा के दर्शन हो जाएंगे| सेवक ने ऐसा ही कहा, पीपा जी ने सुना| पीपा भक्त तो उस समय गुरु-दर्शन के लिए इतना उत्सुक था कि वह अपने तन को चिरवा सकते थे| सुनते ही वह कोई कुंआ ढूंढने के लिए भाग उठे| उसके पीछे उसकी सत्यवती नारी सीता भी दौड़ पड़ी| वह कुएं में गिरेगे| कुएं में गिरने से शीघ्र दर्शन हो सकते हैं| ऐसा बोलते हए वह दौड़ते गए, शोर मच गया| उधर स्वामी रामानंद जी ने अपनी आत्मिक शक्ति से देखा कि पीपा जी को सत्यता ही ‘हरि’ से प्यार हो गया है, भक्त बनेगा, इसलिए उन्होंने ऐसी माया रचाई कि पीपा जी को कोई कुआं ही न मिला| वह भागते फिरते रहे| रानी उसके पीछे-पीछे| धीरे-धीरे वह खड़े हो गए| उसको स्वामी रामानंद जी के भेजे हुए शिष्य मिले जो वहां पहुंच गए| उन्होंने जाकर गुरु जी का संदेश पीपा जी को दिया- ‘हे राजन! आपको गुरु जी याद कर रहे हैं|’ ‘गुरु जी बुला रहे हैं! वाह! मेरे धन्य भाग्य! जो मुझे याद किया| मैं पापी पीपा|’ कहते हुए, पीपा जी शिष्यों के साथ चल पड़े तथा गुरु रामानंद जी के पास आ पहुंचे| डंडवत होकर चरणों पर माथा टेका| चरण पकड़ कर मिन्नत की, ‘महाराज! इस भवसागर से पार होने का साधन बताओ| ईश्वर पूजा की तरफ लगाओ| मैं तो दुर्गा की मूर्ति का पुजारी रहा हूं| लेकिन नारी रूप ने मुझे अज्ञानता के खाते में फैंक छोड़ा|’
‘उठो! राम नाम कहो! उठो! स्वामी रामानंद जी ने हुक्म कर दिया तथा बाजू से पकड़ कर पीपा जी को उठाया| पीपा राम नाम का सिमरन करने लग गया| स्वामी रामनंद जी ने उन्हें चरणों में लगा दिया| पीपा जी भक्त बने ‘देखो भक्त! आज से राज अहंकार नहीं होना चाहिए, राज बेशक करते रहना लेकिन हरि भजन का सिमरन मत छोड़ना| साधू-संतों की सेवा भी श्रद्धा से करना, निर्धन नि:सहाय को तंग मत करना| ऐसा ही प्यार जताना जब प्रजा सुखी होगी, हम तुम्हारे पास आएंगे, आपको आने की आवश्यकता नहीं| राम नाम का आंचल मत छोड़ना| ‘राम नाम’ ही सर्वोपरि है| पीपा जी उठ गए| उनकी सोई सुई आत्मा जाग पड़ी| रामानंद जी से दीक्षा लेकर उनके शिष्य बन गए| पूर्ण उपदेश लेकर अपने शहर गढ़ गागरोन की तरफ मुड़ पड़े| तदुपरांत उनकी काया ही पलट गई, स्वभाव बदल गया तथा कर्म बदला| हाथ में माला तथा खड़तालें पकड़ लीं, हरि भगवान का यश करने लगे| पीपा जी अपने राज्य में आ पहुंचे| उन्होंने भक्ति करने के साथ साथ साधू-संतों की सेवा भी आरम्भ कर दी| गरीबों के लिए लंगर लगवा दिए तथा कीर्तन मण्डलियां कायम कर दीं| राज पाठ का कार्य मंत्रियों पर छोड़ दिया| सीता जी के अलावा बाकी रानियों को राजमहल में खर्च देकर भक्ति करने के लिए कहा| ऐसे उनके भक्ति करने में कोई फर्क न पड़ा| पर वह गुरु-दर्शन करने के लिए व्याकुल होने लगे| उनकी व्याकुलता असीम हो गई तो एक दिन रामानंद जी ने काशी में बैठे ही उनके मन की बात जान ली| उन्होंने हुक्म दिया कि वह गढ़ गागरोन का दौरा करेंगे| उनके हुक्म पर उसी समय अमल हो गया| वह काशी से चल पड़े तथा उनके साथ कई शिष्य चल पड़े| एक मण्डली सहित वे गढ़ गागरोन पहुंच गए| सूचना पहुंच गई गुरु रामानंद जी आ रहे हैं| राजा भक्त पीपाजी तथा उनकी पत्नी को चाव चढ़ गए| वह बहुत ही प्रसन्नचित होकर मंगलाचार तथा स्वागत करने लगे| उनके स्वागत का ढंग भी अनोखा हुआ| कीर्तन मण्डली तैयार की गई, भंडारे देने का प्रबन्ध किया गया| शहर को सजाया गया तथा लोगों को कहा गया कि वह गुरुदेव का स्वागत करें, दर्शन करें, क्योंकि गुरमुखों, महात्माओं के दर्शन करने से कल्याण होता है – ऐसे महात्मा के दर्शन दुर्लभ हैं| बड़े भाग्य हों तो दर्शन होते हैं| जैसे सतगुरु जी फरमाते हैं –
वडै भागि भेटे गुरुदेवा||
कोटि पराध मिटे हरि सेवा ||१||
चरन कमल जाका मनु रापै||
सोग अगनि तिसु जन न बिआपै||२||
सागरु तरिआ साधू संगे||
निरभउ नामु जपहु हरि रंगे||३||
पर धन दोख किछु पाप न फेड़े||
जम जंदारु न आवै नेड़े ||४||
त्रिसना अगनि प्रभि आपि बुझाई||
नानक उधर प्रभ सरनाई||५|
जिसका परमार्थ है – जिन सौभाग्यशाली पुरुषों ने रोशनी करने वाले गुरु की सेवा की है, उनके तमाम पाप कट गए| जिन गुरमुखों का मन प्रभु के चरण कंवलों के प्यार में रमां है, उन को शोक की अग्नि नहीं सताती, अर्थात संसार के भवसागर को साधू-संगत के साथ ही पार किया जा सकता है, इसीलिए कहते हैं कि वह परमात्मा जो निर्भय है, उसके नाम का सिमरन करो| प्रभु नाम सिमरन से जिन्होंने पराया धन चुराने का पाप एवं बुरे कर्म किए हैं, उनके निकट भी यम नहीं आता| क्योंकि प्रभु ने कृपा करके तृष्णा की अग्नि शीतल कर दी है| गुरु की शरण में आने के कारण उनका पार उतारा हो गया है| ऐसे हैं गुरु दर्शन जो बड़े भाग्य से प्राप्त होते हैं| दो तीन कोस आगे से राजा अपने गुरुदेव को आ मिला| उसने प्रार्थना करके अपने गुरुदेव को पालकी में बिठाया तथा आदर सहित राज भवन में लेकर गए| चरणामृत पीया, सेवा करके पीपा आनंदित हए| कीर्तन होता रहा| कई दिन हरि यश हुआ तो स्वामी रामानंद जी ने विदा होने की इच्छा व्यक्त की तथा पीपा ने बड़ी नम्रता के साथ इस तरह प्रार्थना की – हे प्रभु! निवेदन है कि इस राज शासन में से मन उचाट हो गया है| यह राज पाठ अहंकार तथा भय का कारण है| इसको त्याग कर आपके साथ जाना चाहता हूं| आत्मा-परमात्मा के साथ कभी जुड़े| हुक्म करो| ‘हे राजन! यह देख लो, संन्यास लेना कष्टों में पड़ना है| बड़े भयानक कष्ट उठाने पड़ते हैं| भुखमरी से मुकाबला करना पड़ता है| जंगलों में नंगे पांव चलना पड़ता है| सुबह उठ कर शीतल जल से स्नान करना होता है| ऐसा ही कर्म है, अहंकार का त्याग करना पड़ता है| प्रभु कई बार परीक्षा लेता है| परीक्षा भी अनोखे ढंग से होती है| यदि ऐसा मन करता है तो चल पड़ो साथ में| पीपा गुरुदेव के चरणों पर माथा टेक कर राजभवन में गए, शाही वस्त्र उतार दिए तथा फकनी तैयार करवा कर गले में डाल ली, वैरागी साधू बन गए| उसने रानियों तथा उनकी संतान को राज भाग सौंप दिया| छोटी रानी सीता के हठ करने पर उसको वैरागन बना कर साथ ले चले| वैष्णव संन्यासियों में नारी से दूर रहने की आज्ञा होती है, पर स्वामी रामानंद जी सीता जी की पतिव्रता और प्रभु-प्यार देख कर उसको रोक न सके| सीता साथ ही चल पड़ी तथा वे अपने राज से बाहर हो गए| वे साधू-मण्डली के साथ घूमने लगे| भगवान श्री कृष्ण जी के दर्शन साधू मण्डली के साथ विचरण करते हुए भक्त जी ने द्वारिका नगरी में प्रवेश किया| वहां पहुंच कर स्वामी रामानंद जी तो अपने आश्रम कांशी की तरफ लौट आए, पर पीपा जी अपनी सहचरनी सीता के साथ वहीं रहे| भगवान श्री कृष्ण जी के दर्शन करने के लिए व्याकुल होकर इधर-उधर फिर कर कठिन तपस्या करने लगे| वह ध्यान धारण करके बैठ जाते| उनको जो कोई बात कहता, वह उसी को सत्य मान जाते | पर उनके साथ जब बेईमानी या धोखा होने लगता तो परमात्मा स्वयं ही उनकी रक्षा करते भक्त जी तो दुनिया की बातों से दूर चले गए थे| कथा करने वाले एक पंडित ने कहा, ‘भगवान श्री कृष्ण जी द्वारिका नगरी में रहते हैं, वहां कोई महान भक्ति वाला ही पहुंच सकता है| उन्होंने दूसरी द्वारिका नगरी बसाई है| वह नगरी जल के नीचे है| यह कथा श्रवण करने के बाद भक्त के मन पर प्रभाव पड़ गया| वह तो भगवान के दर्शनों के लिए और ज्यादा व्याकुल हो गए| एक दिन यमुना किनारे बैठे थे| सीता जी उनके पास थी| उनके पास एक तिलकधारी पंडित बैठा था| उसको पूछा – ‘हे प्रभु सेवक पंडित जी! भला यह तो बताओ कि भगवान श्री कृष्ण जी जिस द्वारिका नगरी में रहते हैं, वह कहां है?’ उस पंडित ने भक्त जी की तरफ देखा और समझा कि कोई बहुत ही अज्ञानी पुरुष है, जो ऐसी बातें करता है| उसने क्रोध से कह दिया – ‘पानी में|’ ‘पानी में’ कहने की देर थी, बिना किसी सोच-विचार तथा डर के भक्त जी ने पानी में छलांग लगा दी| उनके पीछे ही उनकी पतिव्रता स्त्री ने छलांग लगा दी तथा दोनों पानी में लुप्त हो गए| देखने वालों ने उस ब्राह्मण को बहुत बुरा-भला कहा तथा वह स्वयं भी पछताने लगा कि उससे घोर पाप हुआ है, पर वह क्या कर सकता है? वह डर के कारण वहां से उठ कर चला गया| उधर अपने भक्तों के स्वयं रक्षक! भगवान विष्णु ने उसी समय कृष्ण रूप धारण करके अपने सेवकों को बचा लिया| जल में ही माया के बल से द्वारिका नगरी बसा ली तथा अपने भक्तों को दर्शन दिए| साक्षात् दर्शन करके पीपा जी तथा उनकी पत्नी आनंदित हो गए| जन्म मरण के बंधनों से मुक्त हुए| ऐसा आनंद द्वारिका नगर से प्राप्त हुआ कि वहां से लौटना कठिन हो गया| प्रार्थना की ‘हे प्रभु! कृपा करो अपने चरण कंवलों में निवास प्रदान करें|’ यह खेल समय के साथ होगा| अभी भक्तों को पृथ्वी लोक पर रहना होगा| भगवान कृष्ण जी ने वचन कर दिया| प्रभु जी ने निशानी के तौर पर अपनी अंगूठी उनको दी| रुकमणी जी ने सीता को साड़ी देकर कृतार्थ किया| दोनों पति-पत्नी निशानियां लेने के बाद प्रभु के दरबार से विदा हो गए| देवता उनको जल से बाहर तक छोड़ गए| पर प्रभु से विलग कर भक्त जी उसी तरह तड़पे जिस तरह जल के बिना मछली तड़पती है| उनको कपड़ों सहित पानी में से निकलते देख कर लोग बड़े स्तब्ध हुए| कई लोगों ने पूछा – ‘भक्त जी आप तो डूब गए थे|’ भक्त जी ने कहा – ‘नहीं भाई हम डूबे नहीं थे, हम तो प्रभु के दर्शनों को गए थे, दर्शन कर आए हैं|’ जब लोगों को पूरी वार्ता का पता लगा तो पीपा जी की महिमा सारी द्वारिका नगरी में सुगन्धि की तरह फैल गई| सीता सहचरी की रक्षा लोग दूसरों की बातों में आने वाले तथा अन्धविश्वासी होते हैं| जब एक व्यक्ति ने बताया कि पीपा और उनकी पत्नी सीता प्रभु के दर्शन करके वापिस लौट आए हैं और प्रभु की निशानियां भी साथ लाए हैं तो शहर के सारे लोग पीपा जी के दर्शनों को आने लग गए| कुछेक तो प्रभु रूप समझ कर उनकी पूजा करने लग गए| पीपा जी को यह बात अच्छी न लगी| वह अपनी पत्नी सीता के साथ वन में चले गए ताकि एकांत में प्रभु भक्ति कर सकें| लोग तो हरि नाम सिमरन का भी समय नहीं देते थे| वह घने जंगल की तरफ जा रहे थे कि मार्ग में एक पठान मिला| वह बड़ा कपटी और बेईमान था और स्त्री के रूप का शिकारी था| वह दोनों भक्तों के पीछे लग गया| थोड़ी दूर जाने पश्चात सीता को प्यास लगी| वह एक कुदरती बहते जल के नाले से पानी पीने लग गई| भक्त जी प्रभु के नाम सिमरन में मग्न आगे निकल गए| उनकी और सीता की काफी दूरी हो गई| पठान ने पानी पी रही सीता को आ दबोचा| वह उसे उठा कर जंगल में एक तरफ ले गया| जो प्रभु के प्रेमी होते हैं, प्रभु भी उनका ही होता है| पठान के काबू में आई सीता ने परमात्मा का सिमरन शुरू कर दिया| प्रभु सीता की रक्षा के लिए शेर के रूप में शीघ्र ही वहां आ गए और सती सीता की इज्जत बचा ली| पठान को कोई पाप कर्म न करने दिया और अपने पंजों से पठान का पेट चीर कर उसे नरक में भेज दिया| जब पठान मर गया तो शेर जिधर से आया था उधर को चला गया| सीता अभी वहां ही खड़ी थी कि प्रभु फिर एक वृद्ध संन्यासी के रूप में उसके पास आ गए| उन्होंने आते ही कहा – “बेटी सीता! तुम्हारा पति पीपा भक्त खड़ा तेरा इंतजार कर रहा है| चलो, मैं तुम्हें उसके पास छोड़ आऊं|” सीता उस संन्यासी के साथ चल पड़ी| वह भक्त पीपा जी के पास सीता को छोड़ कर आप अदृश्य हो गए| जिस समय संन्यासी आंखों से ओझल हो गया तो सीता को पता चल, ‘ओहो! यह तो प्रभु जी थे, दर्शन दे गए| मैं चरणों पर न गिरी|’ वह उसी समय ‘राम! राम! का सिमरन करने लग गई| ठग साधू तथा सीता जी सीता सहचरी एक तो प्राकृतिक तौर पर सुन्दर एवं नवयौवना थी, दूसरा, प्रभु भक्ति और पतिव्रता होने के कारण उसके रूप को और भी चार चांद लग गए थे| भक्तिहीन पुरुष जब उसको देख लेता था तो उसकी सुन्दरता पर मोहित हो जाता था| वह दिल हाथ से गंवा कर अपनी बुरी नीयत से उसके पीछे लग जाता था| एक दिन चार दुष्ट पुरुषों ने सीता जी का सत भंग करने का इरादा किया| उन्होंने साधुओं जैसे वस्त्र खरीद लिए तथा नकली साधू बन गए| कई दिन भक्त पीपा जी के साथ घूमते रहे| एक दिन ऐसा सबब बना कि एक मंदिर में रात्रि रहने का समय मिल गया| उस मंदिर में दो कमरे थे|मंदिर बिल्कुल खाली था| आसपास आबादी की जगह घना जंगल था| जबसे भक्त पीपा जी और सती सीता ने संन्यास लिया था, वह एक बिस्तर पर नहीं सोते थे| उस दिन भक्त पीपा ने सती सीता को अकेली कमरे में सोने के लिए कहा तथा आप साधुओं के साथ दूसरे कमरे में सो गए| शायद ईश्वर ने ठगों का नकाब उठाना था, इसीलिए सीता सहचरी को अलग कमरे में विश्राम करने लिए कहा| चारों ठग साधुओं ने योजना बनाई कि अकेले-अकेले साथ के कमरे में आकर सती सीता जी का सत भंग करें| जब काफी रात हो गई तो जहां सति सीता जी सोई हुई थी, एक दुष्ट दबे पांव आगे गया| वह यही समझता रहा कि न तो पीपा जी को पता चला है, न सीता जी को| उनकी कामना पूरी होने में अब कोई कसर नहीं रहेगी| आखिर सीता है तो एक स्त्री थी, पुरुष के बल के आगे उसका क्या ज़ोर चलता है? उस कमरे में अन्दर एक दुष्ट-साधू घुस कर ढूंढने लगा कि सीता कहां है, क्योंकि काफी अंधेरा था| दबे पांव हाथों से तलाश करते हुए जब वह आसन पर पहुंचा, उसने शीघ्र ही सीता सहचरी को दबोचने का प्रयास किया| बाजू फैला कर वहीं गिर गया| जब हाथ इधर-उधर मारे तो उसकी चीखें निकल गईं| डर कर वह शीघ्र ही उछल कर पिछले पांव गिर गया| तलाशने पर पता चला कि कोमल तन वाली सुन्दर नारी बिस्तर पर नहीं है बल्कि तीक्ष्ण बालों वाली रोशनी है, उसके कान हैं, दांत हैं और वह झपटा मार कर पड़ी| गिरता-गिरता वह दुष्ट बाहर निकल आया| डर के कारण उसका दिल वश में न रहा| उसको हांफता हुआ देखकर दूसरे बाहर चले आए और उसे दूर ले जाकर पूछने लगे-मामला क्या है? उसने कहा – ‘सीता का तो पता नहीं कहां है परन्तु उसकी जगह एक शेरनी लेटी हुई है| वह मुझे चीरने ही लगी थी, मालूम नहीं किस समय की अच्छाई की हुई मेरे आगे आई है, जो प्राण बच गए| अरे पागल! सीता ही होगी, यूं ही डर गए| डर ने तुम्हें यह महसूस करवाया है कि वह शेरनी है| चलो ज़रा चल कर देखें, मैं त्रिण जलाता हूं| धूनी से अग्नि लेकर उन्होंने कुछ त्रिण जलाई| उन्होंने जलती हुई त्रिण के साथ कमरे में उजाला करके देखा तो सचमुच शेरनी सोई हुई है| उसकी सूरत भी डरावनी थी| डर कर चारों पीछे हट गए| अग्नि वाली त्रिण हाथ से गिर गई| उनमें से एक ने जाकर भक्त पीपा जी को जगा दिया| उसकी समाधि खुलने पर उसको बताया, ‘भक्त जी अनर्थ हो गया| सीता तो पास वाले कमरे में नहीं है, उसके आसन पर शेरनी है| या तो आपकी पत्नी सीता कहीं चली गई है या शेरनी ने उसे खा लिया है| कोई पता नहीं चलता कि ईश्वर ने क्या माया रची है? पापी पुरुषों से यह वार्ता सुन कर पीपा जी हंस पड़े| वह मुस्कराते हुए बोले, ‘सीता तो संभवत: कमरे में ही होगी लेकिन आपका मन और आंखें अन्धी हो चुकी हैं| इसलिए आपके दिलों पर पापों का प्रभाव है| आपको कुछ और ही दिखाई दे रहा है| चलो, मैं आपके साथ चलकर देखता हूं| भक्त पीपा जी अपने आसन से उठ गए तथा उठकर उन्होंने साथ वाले कमरे में सीता जी को आवाज़ दी, ‘सहचरी जी!’ ‘जी भक्त जी!’ आगे से उत्तर आया| ‘बाहर आओ! साधू जन आपके दर्शन करना चाहते हैं|’ सीता सहचरी अपने बिस्तर से उठकर बाहर आ गई| चारों ठग साधू बड़े शर्मिन्दा हुए| उनको कोई बात न सूझी| वह चुप ही रहे| सूर्य निकलने से पूर्व ही वे सारे दुष्ट (ठग साधू) पीपा जी का साथ छोड़ कर कहीं चले गए| प्रभु ने सीता की रक्षा की| सबका रक्षक आप सृजनहार है| जब सुबह हुई तो वे दुष्ट नज़र न आए| भक्त जी ने सीता को कहा – ‘मैं विनती करता हूं कि अब भी आप राजमहल में लौट जाओ| देखो कितने खतरों का सामना करना पड़ता है| कई पापी मन आपके यौवन पर गिर पड़ते हैं| कलयुग का समय ही ऐसा है| आपके रूप पर मस्त होते हैं, यह लोग पाखण्डी हैं और मन पर काबू नहीं| आप अपने राजमहल में चले जाओ और सुख शांति से रहो|’ ऐसे वचन सुनकर पतिव्रता सीता जी ने हाथ जोड़ कर कहा – हे प्रभु! ज़रा यह ख्याल कीजिए कि यदि आपके होते हुए आपके चरणों में मेरी रक्षा नहीं हो सकती तो राजभवन में रानियों को सदा खतरा ही रहता है| नारी को पति परमेश्वर के चरणों में सदैव सुख है, चाहे कोई दु:खी हो या सुखी, मैं कहीं नहीं जाऊंगी| जो बुरी नीयत से देखते हैं, वे पापों के भागी बनते हैं| मेरा रक्षक परमात्मा है|’ ‘अच्छा! जैसी आपकी इच्छा|’ यह कह कर पीपा जी प्रभु के साथ मन लगा कर बैठ गए| वे दुष्ट चुपचाप ही भाग गए थे| उनको पता चल गया था कि सीता सहचरी का रक्षक ईश्वर आप ही है|
सूरज मल सैन को उपदेश कायउ देवा काइअउ देवल काइअउ जंग़म जाती||
काइअउ धूप दीप नई बेदा काइअउ पूजऊ पाती||१||
काइआ बहु खंड खोजते नव निधि पाई||
ना कछु आइबो ना कछु जाइबो राम की दुहाई ||१||
रहाउ||
जो ब्रहमंडे सोई पिंडे जो खोजै सो पावै||
पीपा प्रणवै परम ततु है सतिगुरु होई लखावै||२||
भक्त पीपा जी जब उपदेश किया करते थे तो वह बाणी भी उच्चारण करते थे| आप जी की बाणी राजस्थान के लोक-साहित्य में मिलती है|मगर श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी में एक शब्द है| इसका भावार्थ यह है: हे भक्त जनो! यह जो पंचतत्व शरीर है, यही प्रभु है, भाव शरीर में जो आत्मा है वही परमात्मा है| साधू-सन्तों का घर भी शरीर है| पंडित देवतों की पूजा करते हैं, पूजा की सामग्री सब शरीर में है| सब कुछ तन में है| इसमें से ढूंढो| सत गुरु की कृपा हो| इस तन से सब कुछ प्राप्त होता है| ऐसे उपदेश करते हुए भक्त पीपा जी देश में भ्रमण करते रहे| जहां भी किसी को पता लगता कि पीपा राज छोड़कर भक्त बन गया है तो बहुत सारे लोग दर्शन करने के लिए आते| बड़े-बड़े राजा तथा सरदार अमीर लोग उपदेश सुनते| आप एक निरंकार का उपदेश देते तथा मूर्ति पूजा का खंडन करते| आप महा त्यागी थे| एक बार आप एक रियासत की राजधानी में पहुंचे| ठाकुर द्वार पर निवास था| आप स्नान करने के लिए सरोवर के पास पहुंचे तो एक बेरी के नीचे गागर पड़ी हुई थी| उसमें से आवाज़ आई, ‘मेरे कोई बंधन काटे, गागर में से आज़ाद करे|’ ‘उफ! माया!’ भक्त जी ने देख कर कहा – ‘भक्तों की शत्रु|’ कह कर चले आए तथा सारी वार्ता सीता जी को सुनाई, ‘स्वर्ण मुद्राएं पड़ी हैं|’ हे स्वामी जी! अच्छा किया आपने| उधर मत जाना, स्वर्ण मुद्राएं हमारे किस काम की!’ उनकी बातचीत पास बैठे चोरों ने सुन लीं| उन्होंने योजना बनाई कि चलो, हम गागर उठा लाते हैं| वह चले गए, पर जब गागर को हाथ डाला तो वहां सांप फुंकारे मारता हुआ दिखाई दिया| वे डर कर एक तरफ हो गए| यह देख कर उनको काफी गुस्सा आया| एक ने कहा – ‘ साधू को अवश्य ही हमारा पता लग गया होगा कि हम चोर हैं| उसके साथ एक सुन्दर नारी भी है| वह हमें धोखे से मरवाना चाहता है| चलो, यह गागर उठाकर ले चलें तथा उसके पास रख दें| सांप निकलेगा तथा डंक मार कर रामलीला समाप्त कर देगा| नारी हम उठा कर ले जाएंगे| एक चोर की इस बात पर सभी ने हामी भरी| चोरों ने गागर का मुंह बांध कर उसे उठा कर ठाकुर द्वार में आहिस्ता से भक्त पीपा जी के पास रख दिया और वहां से चले गए| भक्त उठा तो गागर को देखकर बड़ा आश्चर्यचकित हुआ लेकिन उसमें से उसी तरह आवाज़ आई, ‘क्या कोई मेरे बंधन काटेगा? मैं संतों की शत्रु नहीं, दासी हूं|’ भक्त जी ने गागर में से माया निकाल कर साधुओं को दो भंडारे कर दिए| खाली गागर ठाकुर द्वार में रख दी| उन भंडारों से जय-जयकार होने लग गई, लोग भक्त पीपा जी का यश करने लगे| उस नगरी के राजा सूरज मल सैन का उपदेश देकर भक्ति मार्ग की ओर लगाया| आप १३६ वर्ष की आयु भोग कर इस संसार से कूच कर गए| पिछली आयु में आप पूर्ण ब्रह्म ज्ञानी हो गए थे| संसार में आपका नाम भक्ति के कारण अमर है|
संत श्री पीपाजी महाराज कि जय
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23.1.24

दर्जी संत श्री गुरू टेकचंद जी महाराज की जीवन गाथा - Darji Saint Tekchand Maharaj




दर्जी संत श्री टेकचंद जी महाराज का जन्म विक्रम संवत 1805 में शाझापुर जिले के आलरी गांव में पूर्णिमा के दिन हुआ था। ग्राम आलरी झोंकर मैक्सी रेलवे स्टेशन से 1.50 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है । उनकेपिता का नाम उदयराम जी तथा माता का नाम रुक्मनिबाई था ।उस समय आलरी गाँव ग्वालियर राज्य के अधीन था। श्री उदयाराम जी का परिवार ग़रीब लेकिन सम्मानित था । वे एक कपड़ा व्यापारी थे । उनके घर मे जल्दही एक बालक का जन्म हुआ जिसका नाम टेकचंद रखा गया | यह बालक उनके घर मे खुशिया शांति ओर सम्रद्धि ले कर आया| उनके घर मे आए दिन धार्मिक अनुष्ठान होते रहते थे इसीलिए टेकचंद जी की मनोव्रति बचपन से ही धार्मिक हो गई थी | जब वे ५ वर्ष के हुए तब उन्हे विधयालय भेजा जाने लगा| छोटा सा गॉव होने के कारण उनकी प्राथमिक शिक्षा संतोष जनक नही थी | जब वे १२ साल के हुए तब वे सिलाई का कार्य करने लगे एवं उनके पिताजी उन्हे अपने साथ व्यवसाय के लिए ले जाने लगे | कार्य मे मान ना लगने के कारण व्यापारियो की शिकायते आने लगीजिसके कारण उनके पिताजी ने उन्हे घर छोढ़ने को कहा | अपने पिताजी के ऐसे कठोर वचन सुनने के बाद उन्होने सोचा की इस कठोर दुनिया मे भगवान के अलावाकोई भी साथी नही है| शांतिपूर्ण मृत्यु भगवान की पूजा के बिना संभव नहीं होगा। उसी समय उन्होने माता पिता को दिल से नमन् करके घर का त्याग कर दिया | घर छोढ़ने के समय उनकी आयु मात्र १८ वर्ष थी | घर छोढ़ने के पाश्चयात उन्होने गाँव गाँव घूमकर धर्म ओर ज्ञान का प्रसार किया | अपनी इस यात्रा के दौरान गाँव गाँव घूमते हुए एक दिन संवत 1825 (1767) को गाँव उन्हेल पहुचे | वहाँ उनकी भेंट संत कबीर के अनुयायी संत परसराम जी से हुई | विक्रम संवत १८२८ में (१७६८) पूर्णिमा के दिन गुरु परसराम जी महाराज ने उन्हे उपदेश दिया एवं अपना शिष्य बना लिया | विक्रम संवत 1841 में (1784) मे उन्होने अपनी तीर्थ यात्रा उज्जैन से शुरू की जिसमे वे महान्कलेश्वर से ओंकारेश्वर होते हुए काशी (बनारस) पहुचे | जहा वे कई संतो के संपर्क मे आए ओर भगवान की उपासना की |यहा उन्होने अपना कुछ समय सत्संग ओर भगवान काशी विश्वनाथ के दर्शन का लाभ लेते हुए बिताया | उसके बाद उन्होने बद्रीनाथ, केदारनाथ, जगन्नाथ, रमेश्वरम ओर द्वारका की अपने चार धाम की यात्रा पूर्ण की | टेकचंद जी ने अपने धार्मिक यात्रा जारी रखी वे मथुरा, वृंदावन, हरिद्वार, अमरनाथ ,प्रयाग , चित्रकूट, मदुरै , काशी,तिरुपति, भिमाशंकर,बैजनात , जूनागढ़ , नतद्वारा ,पुष्कर ओर कई ओर जगहो पर एवम् नदियो जेसे गंगा ,यमुना , शरयू ,गोदावरी ,कृष्णा , कावेरी नर्मदा, इत्यादि मे स्नान किया | एक दिन विजयदशमी विक्रम संवत 1848 (1790) के दिन वे उज्जैन लौट आए एवम् क्षिप्रा नदी मे स्नान करके एवं भगवान महानकलेश्वर की पूजा करकेउन्होने अपने यात्रा सामप्त की | कार्तिक शुक्ला पक्ष की ग्यारस को वे संत कबीर के मंदिर के दर्शन की इच्छा से वे ग्राम झोंकर (माक्सी) पहुचे | एक बार नवरात्रि के दौरान विक्रम संवत 1849 (1794). को उन्होने ग्राम झोंकर मे अपने आध्यात्मिक ज्ञान के लिए करीब ९ दिन समधी मे गुज़रे | उसके एक वर्ष बाद वेउज्जैन लौट आए जहा उन्होने ४ महीने बिताए | उसके बाद कार्तिक शुक्ला विक्रम संवत 1850 को वे ग्राम करछा आए जो की उज्जैन से १२ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है | यहाँ उन्होने फिर से करीब ४० दिन समाधि मे बिताए | हिंदू नव वर्ष दिवस गुडी पड़वा पर विक्रम संवत 1858 में अपनी आत्म ज्योति बढ़ने हेतु वे ध्यान कर रहे थे | उनकी एसी भक्ति देख प्रभु श्री हरी उनपर प्रसन्न ऊए तथा उन्हे दर्शन दिए | प्रभु ने उन्हे अष्ट सिद्धि ओर नवनिधि का ज्ञान भी दिया | करछा मे रहने के दौरान सुबह ब्रह्म मुहूर्त मे उठकर प्रतिदिन उज्जैन जाकर क्षिप्रा नदी मे स्नान करके आना उनकी दिनचर्या का अभिन्न अंग था|यह क्रम करीब २ वर्षो तक चला | उनकी इस भक्तिमय गतिविधि को देखकर एक दिन प्रसन्न होकर माता क्षिप्रा ने उन्हे दर्शन देकर कहा की उन्हे प्रतिदिन अब इतनी दूर आने की आवश्यकता नही है | उनपर प्रसन्न होकरवे अब उनके आश्रम के समीप से ही बहेंगी | इस्तेमाल किया वहाँ नदी से, तब आने के लिए ही अपने आश्रम के निकट प्रवाह होगा, ओर वे प्रसन्नता के साथअपनी दैनिक दिनचर्या का पालन करने लगे | ६३ वर्ष की आयु मे संत श्री टेकचन्द जी महाराज ने करछा आश्रम मे पूर्ण रूप से समधी लेने का निश्चय लिया | यह समाचार सुनते ही ग्वालियर के तत्कालीन महाराज श्री दौलत राव जी सिंधिया स्वयं उनके दर्शन करने आए | ओर उसके बाद श्री टेकचंद महाराज जी ने समधी ले ली |

विस्तृत कथानक 

पांच वर्ष की अवस्था में उन्हें पाठशाला भेजा गया ! ग्राम में रहने के कारण उनकी पारम्भिक शिक्षा कोई विशेष नहीं हो सकी ! परन्तु इश्वर भक्ति और सत्संग को बड़े चाव से सुनते थे ! ग्यारह वर्ष की आयु में उन्हें यगो पित धारण कराया गया था ! बारह वर्ष की आयु में पिताजी ने इन्हें भी सिलाई के काम पर बैठा दिया तथा हाट बाजार करने के लिए भी साथ ले जाने लगे थे !
घर में धार्मिक वातावरण होने से श्री टेकचन्द्र जी की विचारधारा बचपन से ही धार्मिक रही ! एक समय की बात है श्री उदयराम जी को मोतिझिरा अवं खासी से तकलीफ होने पर तबियत कुछ नरम थी !अपनी धर्म पत्नी से कहा की मेरी तबियत नरम है ! धर्मपत्नी ने उन्हें गर्म दूध के साथ दवाई दी और कहा की आपको अपना कारोबार बच्चों को सोप देना चाहिए ! धंधा न कर सकने के कारण उन्होंने अपनी पत्नी की सलाह से तीनो पुत्रों को बुलाया ! उनके नाम अमीचंद , तुलसीराम ओर टेकचंद थे ! जब उन्हें बुलाया तब वे अन्य बच्चों के साथ भक्त के रूप में भजन कीर्तन गा-गा कर खेल रहे थे ! उनके कीर्तन का मुखड़ा था : -

! नन्द नंदन असुर निकंदन , भवभय भंजन हारे या !

विपिन बिहारी जनमन हारी, श्याम बांसुरी वारे या !!

भक्त जनन के अरु कवियन के , मन मंदिर उजियारे आ !

भारत भाग्य उदय करने, मेरे श्री कृष्णा प्यारे आ !!

माता पिता के बुलावे का आभास पाकर वे घर आये ! पिताजी ने तीनो भाई से कहा बाजार हाट में जाकर कपड़े बेचोगे तो अच्छा होगा ! क्योकि मेरी हालत ठीक नहीं है और में तुम्हारे साथ बाजार हाट करने के लिए भी असमर्थ हु ! पिताजी की इस आज्ञा का पालन करने तीनो भाई तैयार हो गए ! अमिचंदर और तुलसीराम को एक गाँव तथा टेकचन्द्र को दुसरे गाँव भेजा !साथ ही उन्होंने कुछ व्यापारियों हरिरामजी , रतीरामजी , गोविन्दजी , आदि के नाम बताये ! श्री टेकचंद जी ने प्रस्थान करने से पूर्व मन ही मन ईश्वर
का स्मरण करते हुए प्रार्थना की प्रभु मुझे इस कार्य को सच्चे रूप से निभाने की शक्ति दे और बाद में वे माता पिता को नमन कर प्रस्थान किया ! बाजार में अपनी दुकान लगा कर कपड़े बेचने लगे सबने देखा की ये नया व्यापारी लड़का कोन है ? तब टेकचन्द्र जी ने कहा की आपने मुझे कभी नहीं देखा में नया हूँ परन्तु में उदयरामजी का पुत्र हूँ ! सब दूकानदार भी अपने अपने काम में लग गए !
उस दिन बाजार में टेकचन्द्र जी के माल की बिक्री अच्छी हुई ! इसे देखकर कुछ व्यापारी जलन करने लगे ! दुसरे हाट में टेकचन्द्र ने अपनी दुकान अन्य व्यापारियों के साथ लगाई ! उसमे बिक्री बहुत हुई ! कभी तो ऐसा भी हुआ की उन्होंने आधे दाम में ही कपड़ा दे दिया ! जिसे देखकर अन्य व्यापारी टेकचन्द्र के पिता उदयरामजी के पास जाकर कहने लगे की तुम्हारे लड़के ने तो बहुत कम दाम में कपड़ा बेच दिया ! ग्राहक की दयनीय अवस्था को देखकर एक दो को बिना पैसे लिए ही माल दे दिया ! जिसे देखकर अन्य व्यापारी टेकचन्द्रजी के पिता उदयरामजी के पास जाकर कहने लगे की तुम्हारे लड़के ने तो बहुत कम दाम में कपड़ा बेच दिया है ! इससे बाजार भाव पर बुरा असर पड़ता है ! उसकी सत्यता की जानकारी उन्ही के सामने लेने पर उनके पिताजी ने जितना माल दिया था वह रुपये का हिसाब पूरा पाया ! जिसे देखकर माता-पिता एव व्यापारी वर्ग आश्चर्य चकित रह गए !

सत्संग का प्रभाव


इसके बाद एक समय की घटना है की टेकचन्द्र मक्सी से बाजार करके घर लौट रहे थे ! रास्ते में साधू संतों की एक टोली मिली ! आपने सब रकम उनके लिए खर्च कर दी और खाली हाथ घर वापस आ गए! उस दिन पहले की भांति हिसाब नहीं बताया सुबह होते ही फिर सब के सब दूकानदार उदयरामजी के यहाँ आकर टेकचन्द्र के विरुद्ध कई प्रकार की बातें बनाकर कठोर शब्दों में उलाहना देने लगे ! एक ने तो ये तक कह दिया की तुम्हारे बेटे ने क्या हिसाब दिया की उसके इतनी तरफदारी कर रहे हो !वह हिसाब क्या बताएगा उसने तो सारा का सारा धन साधू संतों को दे दिया था ! और वह खाली हाथ घर आया है ! इस बात ने अग्नि में जलती हुई आहुति सा काम किया ! ओर पिता ने तमतमाते हुए उन् लोगों के सामने टेकचन्द्र जी को बुलाया और कहा तुम्हारे कारण मेरे साथी इतना कष्ट उठाते है यहाँ में सहन नहीं कर सकता ! कल चुपचाप आया और सो गया मुझे हिसाब तक नहीं बताया ! सार पैसा साधू संतों को खिलाकर खाली हाथ घर आया ! इस पर टेकचन्द्र जी ने कहा मेने उन्हें (दुकानदारों) को कोन सा कष्ट दिया है ! आप सच मानिये साधू संतों के बारे में संत कबीरदासजी ने कहा है –

साधू हमारी आत्मा , हम साधू के जीव

साधू में यूँ राम रहा , जो गो रस में घीव

संत हमारी आत्मा , हम संतान के देह

साधू में यूँ राम रहा , जो बदल में मेह !
यह सुनकर पिताजी बोले चल बड़ा आया , मुझसे बड़ी बड़ी ज्ञान की बातें करता है उनको परेशान करके पूछता है कोनसा कष्ट ! एकदम क्रोध में आकर उनके पिताजी ने कह दिया की अभी चले जाओ मेरे सामने से ! में कुछ सुनना नहीं चाहता ! जहाँ तुम जाना चाहो जा सकते हो ! अब तुम मेरे घर में पैर मत रखना ! तुमने घर को बदनाम कर दिया है ! मूर्ख !
गृह त्याग
श्री टेकचन्द्र ने पिता के मुख से इस प्रकार के शब्द सुने तो उनके कोमल ह्रदय को गहरा आघात पंहुचा ! उन्होंने अपने मन में अपनी आत्मा से ध्यान कर जान लिया की इस नश्वर संसार में ईश्वर के बिना और कोई मददगार नहीं है ! सद्भाव से उस ईश्वर का भजन पूजन करना ही अच्छा है ! ऐसा विचार कर अपने माता पिता भाई बहिन आदि सभी पूजनीय लोगों को मन ही मन प्रणाम कर पिता की आज्ञा शिरोधार्य करके घर छोड़कर निकल गए ! जिस हालत में पिताजी के सामने खड़े थे वैसे ही चले गए !
रास्ते में जाते हुए ईश्वर को विनय के साथ भजते जाते थे :-


विनम्र प्रार्थना

प्रभु सत्य का पथ बता दो मुझे !

आवागमन के दुःख से छुड़ा लो मुझे !!

प्रभु चरणों की शरण में लगा लो मुझे !१ प्रभु सत्य का ..........

पड़ा हु जंजाल जगत में , घोर अविध तम जहाँ !

कामादि ब्याल कराल घेरे , आहार निशि रहते तहां !!

ऐसे काल के गाल से , बचालो मुझे !! प्रभु सत्य का .......

उटाह रही तराशना की अग्नि , वासना झाल उड़ रही !

धुँआ कर्म का छाया चहु दिशि , गेल स्वजाति में नहीं !

अपने चरणों का सहारा , दिल दो मुझे !! प्रभु सत्य का .......

माया के परदे नेत्र पर है , सूझता सत्पंथ नहीं !

अगर आप भी छोड़ दोगे, फिर ठिकाना नहीं कही !!

अपने चरणों की शरण में , लगालो मुझे !! प्रभु सत्य का ........

रो रो पुकारू तुझे , अब तो सद्गुरु दो दर्शन !

तेरे सिवा नहीं कोई , जो हरे संकट भगवन !!

अब तो सुक्र्त सव्देश में , पौच दो मुझे !! प्रभु सत्य का ........

' टेकचन्द्र' उस प्रभु कृपा से , जपले सिकर्ट नाम !

इश्वर इस संसार में , संग चले सतनाम !!

सतगुरु सतनाम सवरूप , दिखा दो मुझे !! प्रभु सत्य का .....

उनके घर से चले जाने पर माता रुख्मणि को बहुत दुःख हुआ और उदयरामजी ने भी क्रोध शांत होने पर उदास स्वर में कहा देवी संसार का यहाँ नियम है की मनुष्य पर जब प्रभु कृपा करते है तो ऐसा ही होता है ! अतः जब धीरज से ही काम लेना है ! पत्नी बोली की कोई ऐसा उपाय करो जिससे मेरा पुत्र मुझे फिर से मिल जाए! पिता के अनेक उपाय करने पर भी वे घर नहीं लोटे ! जो लेने गए थे उन्हें समझा कर वापस कर दिया ! जैसे तेसे मन मारकर रहने लगे ! समय आने पर उदयरामजी ने दोनों बच्चों अमिचंद्र अवं तुलाराम का विवाह अच्छा घर घराना देखकर कर दिया ! सारे परिवार के लोग आनंद से रहने लगे लेकिन टेकचन्द्र की अनुपस्थिति खलती रही उन्होंने विक्रम सम्वत १८२३ सन १७६६ में गृह त्याग किया उस समय उनकी उम्र १८ वर्ष की थी ! अभी तक श्री टेकचंद सांसारिक जीवन पर सवार थे किन्तु घर से निकलने के पश्चात् अपने जीवन को सार्थक बनाने के किये भक्ति व ज्ञान के सागर में तेरते रात दिन प्रभु के चरणों को अपने ह्रदय में धारण कर गाँव-गाँव घुमते फिरते रहे ! श्री टेकचन्द्र महाराज को भी माता- पिता तथा भाई बहनों की याद कुछ दिनों तक आती रही ! किन्तु ज्यो ज्यों ज्यों भगवत भजन एवं सत्संग में रमते गए त्यों त्यों याद बिसरते गए ! लगाव कम होता गया और एक समय ऐसा आया जब उनके ज्ञान चक्षु खुल जाने से वे गृहस्थ जीवन से मुक्त हो गए !

गुरु दीक्षा

विक्रम सम्वत १८२४ सन १७६७ में घुमते घुमते एक दिन वे उन्डेल नाम के गाँव में पहुचे ! उन्डेल में कबीर पंथी एक संत श्री परसरामजी महाराज निवास करते थे ! वही उन्हें उनका सत्संग मिला जिससे प्रभावित होकर उस अत्यंत ही सुन्दर एवं रमणीय स्थान पर यदि मुझे अपना शिष्य बनाकर रहने का मोका दें तो कितना अच्छा हो , ऐसा विचार कर श्री टेकचन्द्रजी ने श्री गुरु परसरामजी के पास जाकर साष्टांग प्रणाम किया और आज्ञा पाकर कहा- गुरु महाराज आप मुझे अपना शिष्य बना लें जिससे आपके चरणों की सेवा करके कृतार्थ हो जाऊ ! यहाँ वचन सुनकर श्री गुरु महाराज परसरामजी ने सार रहस्य व चमत्कार पहचान लिया और कुछ सोच कर कहा बेटे तेरे माता पिता धन्य है जिन्होंने तेरे जैसे पुत्र को जनम दिया ! में तुम्हे अपना शिष्य अवश्य बनाऊंगा ! तुम अभी आश्रम में ही रहो ! आश्रम के सभी शिष्यं को बुलाकर कहा - टेकचन्द्र यही रहेगा तथा शुभ दिन व समय देखकर दीक्षा दी जाएगी ! कुछ दिन बीतने के बाद विक्रम सम्वंत १८२५ सन १७६८ में वैशाख शुक्ल पूर्णिमा के दिन श्री गुरु परसरामजी महाराज ने श्री टेकचन्द्र जी को साधू संत होने की गुरु दीक्षा देकर अपना शिष्य बनाया ! उनके बारह गुरु भाई एवं एक गुरु बहिन थी जिनके नाम निम्नुसार है :




१ श्री भीकारीदासजी

२ श्री मोतिदासजी

३ श्री मनोहर दासजी

४ श्री आत्मदासजी

५ श्री तेजुदासजी

६ श्री गणेशदास जी

७ श्री सिद्धनाथजी

८ श्री गरीबनाथजी

९ श्री केवलनाथजी

१० श्री ऐकनाथजी

११ श्री सिंगाजी महाराज

१२ श्री रामजी बाबा

१३ बाई रामदास

सभी शिष्यों से गुरूजी बाई रामदास को अधिक चाहते थे ! श्री टेकचन्द्र जी सभी शिष्यों में बहुत ही चतुर एवं ज्ञान के धनि थे ! धीरे - धीरे गुरूजी का स्नेह श्री टेकचन्द्रजी के प्रति बढ़ता गया ! श्री टेकचन्द्र जी भजन भी बहुत गया करते थे ! इनकी वाणी बहुत मधुर थी वे अपने गुरुभाइयों के साथ भी सहिष्णुता का व्यव्हार रखते थे ! आश्रम में सत्संग पाकर भक्त टेकचन्द्र जी रात दिन इश्वर चर्चा में मगन रहेते थे ! इश्वर चर्चा में इनका विवेक रुपी भण्डार अगम्य व अक्षय होने लगा ! उनकी क्षमा की विचारधारा ..............ता से परिपूर्ण तथा उच्च कोटि की होती थी जिससे स्वयं गुरु परसराम भी अत्यंत प्रभावित होकर उनके ह्रदय से प्यार करने लगे ! श्री टेकचन्द्र जी को अपने गुरु की सेवा करते तपस्या में १२ वर्ष व्यतीत हो गए ! वि . सं . १८३४ सन १७८० में एक दिन संत श्री परसरामजी महाराज ने अपने सभी शिष्यों को बुलाकर तीर्थ यात्रा के विचार से अवगत कराया ! साथ ही श्री टेकचन्द्र जी को अपनी अनुपस्थिति में आश्रम का उत्तराधिकारी बनाने की भी जानकारी दी और कहा जब तक में वापस नहीं आ जाता तब तक यहाँ की सम्पूर्ण जवाबदारी टेकचन्द्र को सोंप रहा हूँ !गुरु परसरामजी ने बाई रामदास को पास बुलाया और कहा की मेरे बाद तुम टेकचन्द्र को ही गुरु मानना ! जिस प्रकार से मेरी सेवा करती हो उसी प्रकार से उनकी करना !परन्तु बाई रामदास को यहाँ बात अच्छी नहीं लगी क्योकि टेकचंद्र अभी गुरु के योग्य नहीं है ! वह अभी इतना सिद्ध पुरुष नहीं हो गया है जो हम उनकी सेवा करें ! इस पर टेकचन्द्र जी ने कहा बहन तुम सच कहती हो आपका यहाँ तुच्छ सेवक कहाँ - भला जुगनू की तुलना सूर्य से ! ऐसा नहीं होना चाहिये ! यहाँ सुनकर गुरु परसरामजी ने सभी को कहा तुम्हे गुरु की आज्ञा का पालन करना चहिये जो गुरु की बात टालता है वह सच्चा संत नहीं बन्न सकता ! उससे साधू नहीं होना चहिये ! बिना सेवा किये आत्मा निर्मल नहीं हो सकती ! बाई रामदास का विरोध देखकर गुरूजी ने तीर्थयात्रा का विचार स्थगित कर दिया ! सभी आनंद पूर्वक रहने लगे !

गुरु आश्रम का त्याग

बाई रामदास की व गुरूजी की बात सुनकर श्री टेकचन्द्र को झटका लगा और उन्होंने अपना मन में विचार किया कुई गुरूजी मुझे बढ़ा भारी त्यागी समझकर मेरी गुरु बहन को सेवा में भेज रहे है ! यदि में यहाँ मुझे बड़ा भारी त्यागी समझ कर मेरी गुरु बहिन को सेवा में भेज रहे है ! यदि में यहाँ रहता हु तो गुरु भाइयों का द्वेष बढेगा द्वेष बढ़ाना अपना काम नहीं है , अपना काम तो दीं दुखी जीवों की सेवा करना और सत्य का उपदेश देना है ! अतः इन् सब बातों से बचने के लिए मुझे आश्रम छोड़ देना चहिये ! ऐसा विचार कर श्री टेकचन्द्र जी ने गुरु भाइयों व बहनों को दंडवत प्रणाम करके अर्ध रात्रि में बिना गुरूजी से मिले चुपचाप वहां से भ्रमण करने निकल पड़े !सुबह होने पर श्री गुरूजी परसरामजी को सारी घटना मालूम पड़ी तो अत्यंत दुखी हुए ! संत श्री परसराम ने सभी शिष्यों को बुलाकर कहा ऐसा मालूम होता है की टेकचन्द्र आश्रम छोड़कर कही चले गया है टेकचन्द्र वास्तव में आश्रम में सर्व शिरोमणि विद्वान था ! संत बोले हमारे टेकचन्द्र का आदर्श , ईश्वर भक्ति में लगन , गुरु से अद्वितीय थी , शिष्यों ने कहा - हमारी अखंड सुमरनी का एक महत्वपूर्ण मनका कम हो गया ! हम तो उनकी तुलना में पासंग भी नहीं !उन् पर प्रभु की असीम अनुकम्पा थी ! बातचीत करते करते श्री परसरामजी व अन्य शिष्यों का मन भी श्री टेकचन्द्र के अभाव में खिन्न हो गया !

परसरामजी ने जगह जगह भक्तों को भेजकर अपने शिष्य टेकचन्द्र की तलाश कराई जब कही पता नहीं लगा तो वे सब इस बात पर उतारू हो गए की आज नहीं तो कल हम टेकचन्द्र को ढूँढकर ही रहेंगे !

अवंतिका आगमन

उधर गुरु आश्रम से निकलने के बाद श्री टेकचन्द्रर्जी भटकते भटकते उज्जैन नगरी में पुच गए वहां पर भक्त शिरोमणि मीराबाई का एक बड़ा सुन्दर स्थान बना हुआ था उस्सी स्थान पर संत श्री टेकचन्द्रजी में अपना आसन जमा लिया ! धीरे धीरे उनकी प्रतिमा दिन दोगुनी रात चोगुनी बढ़ने लगी ! दिन रात मण्डली चाहे साधू हो या गृहस्थी मिलने व सत्संग करने को आने लगे ! उस साधारण प्राणी ने वह जादू कर दिया था की जो वहां आश्रम जाता उसका आश्रम छोड़ने को जी नहीं करता था देखते देखते सेकड़ों व्यक्ति श्री टेकचन्द्र जी महाराज के प्रवचन को सुनकर ईश्वर में श्रद्धा रखने लगे और उन्हें अपना गुरु मानने लगे ! गुरु दीक्षा देने का कार्य भक्तों के आग्रह होने पर स्थगित रखा ! उनका कहना था की तीर्थ यात्रा करने के बाद ही में यहाँ कार्य हाथ में लूँगा ! दिन प्रतिदिन भक्तों की श्रद्धा अधिकाधिक बढ़ने लगी इनके परिणाम स्वरूप भक्तों द्वारा एक श्री राधा कृष्णा मंदिर का निर्माण किया तथा उनके चरणों के चरण पादुका की ! जो आज भी ब्राहमण गली बहादुरगंज में स्थापित है!
उज्जैन में रहते उन्होंने अपने प्रवचन में कहा - यहाँ संसार माया मोह से लिप्त हुआ है ! इससे प्राणी मात्र को विर्रक्त रहेना ही हितकर है ! तभी एक भक्त ने प्रश्न किया स्वामी गृहस्थ में फस प्राणी इस माया मोह से कैसे अलग हो सकता है ?
इस पर श्री टेकचंद जी ने कमल का उदाहरण देकर कहा - अवश्य हो सकता है जिस प्रकार कमल पर जल डालने से कमल का पत्ता गोल नहीं होता वरन जल को नीचे गिर देता है उस्सी प्रकार ग्रहस्थ में रहकर के मनुष्य मुक्ति को प्राप्त कर सकता है ! त्याग तो करना ही होगा ! कलयुग में तो सांसारिक प्राणी के थोड़े से श्रम से प्रभु प्रसन्न होते है ! प्रभुका स्मरण सच्चे भाव से जो करता है , चाहे वह अल्पसमय के लिए ही क्यों न हो , घाट घाट के अंतर्यामी प्रभु उसकी पुकार अवश्य सुनते है !

तीर्थ यात्रा

एक दिन श्री टेकचन्द्र जी महाराज ने अपनी तीर्थ यात्रा की इच्छा भक्तों के सामने रखी सभी उपस्थित भक्तों ने मिलकर उनके खर्च हेतु धन राशी एकत्रित कर भेंट की , परन्तु उन्होंने आश्रम की व्यस्था हेतु वापिस कर दिया और कहा की मुझे एक पैसा भी नहीं चहिये प्रभु खुद मेरी पूर्ती करता है सो इसे में क्यों अपने पास रखु ! दुसरे दिन सबेरे ही सब भक्तों ने अत्यंत श्रद्धा से श्री टेकचंद्रजी महाराज को भगवान् श्री महाकालेश्वर के दर्शन के पश्चात तीर्थ यात्रा हेतु प्रस्थान कर भाव पूर्ण विदा किया ! श्री टेकचन्द जी महाराज ने अपनी तीर्थ यात्रा उज्जैन से चित्र शुक्ल पक्ष पुष्य नक्षत्र में विक्रम सम्वत १८४१ सन १७८४ में प्रारम्भ की !
उज्जैन से ओंकारेश्वर होते हुए काशी पहुंचे काशी में आपका कई साधू संतों एवं ईश्वर भक्तों से संपर्क हुआ ! वही रहकर कुछ समय ईश्वर भजन एवं सत्संग में व्यतीत किया ! और विश्वनाथ के दर्शन का लाभ लिया ! तत्पश्यात आपने चारो धाम बद्रीनाथ , केदारनाथ , जगन्नाथ , रामेश्वर और द्वारिका की यात्रा की ! संत श्री टेकचन्द्रजी महाराज तीर्थ यात्रा करते हुए मथुरा , वृन्दावन , हरिद्वार , अमरनाथ , प्रयाग , चित्रकूट , मदुराई कशी कांची , श्री शैलम , तिरुपति , भीमशंकर , बैजनाथ त्रयम्बकेश्वर , सोमनाथ , जुनागड़ , गिरनार , डाकोर , नाथद्वारा , पुष्कर आदि मुख्या - मुख्या स्थानों पर होते हुए एवं प्रमुख नदियाँ गंगा , यमुना , गोदावेरी , कृष्णा , सरयू , कावेरी , नर्मदा आदि में स्नान करते हुए आश्विन शुक्ल पक्ष में विजयादशमी के दिन विक्रम संवत १८४७ सन १७९० में वापस उज्जैन आकर शिप्रा (शिवप्रिया) में स्नान करके महाकालेश्वर के दर्शनकर तीर्थ यात्रा समाप्त की !

गुरु पद को प्राप्ति

उज्जैन के भक्तों को इसकी सूचना पूर्व में ही मिल चुकी थी ! संत श्री टेकचन्द्रजी महाराज के उज्जैन आते ही भक्त लोगों ने महाकाल मंदिर पहुंचकर उनका भव्य स्वागत किया ! सभी लोगों ने दंडवत प्रणाम कर उनका आशीर्वाद लिया बाद में हाथी पर उनकी सवारी महान्कलेश्वर मंदिर से निकली जो उज्जैन के प्रमुख मार्गों से होती हुई श्री राधाकृष्ण मंदिर पहुची ! तीर्थ यात्रा से आने के नाद उन्होंने भक्त जनों के आग्रह पर गुरु मन्त्र देना प्रारम्भ किया जिससे वे गुरूजी कहलाये ! प्रबल ईश्वर भक्ति के कारण संत कहलाये !

प्रस्थान

तीर्थ यात्रा के समय मार्ग में न-न प्रकार के उच्च कोटि के संत महात्माओं , महंतों , महापुरसों एवं भगवत भक्तों से भी सत्संग करने का अवसर प्राप्त हुआ ! उससे आपके व्यक्तित्व में एक महँ परिवर्तन आ गया था ! आप सह्न्ति एवं गाम्भीर्य के प्रतिरूप बन गए थे ! उनके गुरु परसरामजी के द्वारा बताई संत कबीर की बात याद आने पर श्री टेक्चंद्र्जी महाराज ग्राम झोंकर में संत कबीर मंदिर के दर्शन करने की इच्छा से मक्सी होते हुए कार्तिक शुक्ल एकादशी वि.सं.१८४७ सन १७९० के दिन ग्राम झोंकर पहुचे ! वहां का वातावरण उन्हें बहुत ही शांत एवं स्वच्छ मालूम हुआ ! संत श्री टेक्चंद्र्जी महाराज ने अपना आसन कबीर मंदिर में ही जमाया ! वहां पर मंदिर के पास ही एक बड़ा इमली का पेड़ था !
एक बार श्री गुरु महाराज संत श्री टेक्चंद्र्जी ने अपने संयम को अडिग बनाने एवं अधिक अत्यामिक ज्ञान को वृद्धि हेतु ग्राम झोंकर में इमली के पेड़ के पास ही नवरात्री में वि.सं. १८४९ सन १७९२ में ८ दिन की समाधी ली थी जिससे उनका वर्चस्व पास के गाँव में दूर दूर तक फ़ैल गया और भक्तों द्वारा समाधी के पास ही सुबह शाम वहां कीर्तनं होता था ! आठ दिन की अविरल समाधी लेने के पश्चात संत अपनी मुद्रा भंग करके वास्तविक स्थिति में आये ! उन्हें फलों का रसपान कराया ! गगन भेदी आवाज़ से उपस्थित जन समुदाय ने जय-जयकार की !


आरती टेकचंद जी महाराज की


ॐ जय गुरुदेव हरे, ॐ जय गुरुदेव हरे,
दीनजनों के संकट, तुम गुरु दूर करें ,

पुण्य पयोनिधि पावन, आलरी की धरती,
हर्ष विभोर धरा ने, गोदी निज भर दी ,

लता पुष्प लहराये, सरस समय आया,
सुमन गंध अंजलि भर, श्रद्धानत लाया ,

एक अलौकिक क्षण था, बिखरी नव आभा ,
गुरु के चरण परत ही, दुख विषाद भागा ,

रुकमणी अंक किलोलित, उदय गोद खेले,
प्रमोदित मात-पिता हो, बालक चाल चले ,

दामोदर कुल हर्षित, गुरु प्रसाद पाया ,
पावन स्वर गुरुवर का नवजीवन लाया ,

कलि कुल कलुष सने है, मुक्ति कौन करे,
अगम भाव भावन को, अभिनव आन धरे ,

कलयुग कलुष मिटाने, कड़छा मन भाया ,
साधि साधना तुमने, हटि गहन माया ,

जान अकिंचन हमको, ज्ञान चक्षु दे दो ,
भव सागर तर जावें, बीज मंत्र कह दो ,

शरण पड़े हम तेरी, अवलंबन प्रभु दो ,
उभय लोक सुखकारी, वरद हस्त धर दो ,

हीरा तो पत्थर हैं, चमक तुम्हीं देते ,
मोह जड़ित जड़ मन को, ज्योतित कर देते ,

विनय भाव जो जन, गुरु महिमा गावे ,
आनंदित हो जीवन, भव से तर जावे ,

ॐ जय गुरुदेव हरे, ॐ जय गुरुदेव हरे ,
दीनजनों के संकट, तुम गुरु दूर करें ,

Disclaimer: इस  content में दी गई जानकारी Internet sources, Digital News papers, Books और विभिन्न धर्म ग्रंथो के आधार पर ली गई है. Content को अपने बुद्धी विवेक से समझे

गुरुदेव पर पर लिखे साहित्य से लेख ने आकार लिया है .सभी के प्रति कृतज्ञता  ज्ञापित करता हूँ. --डॉ.दयाराम  आलोक :अध्यक्ष दामोदर दरजी महासंघ 

20.1.24

"दर्जी समाज सन्देश " वेबसाइट की लोकप्रियता अब सरहद पार विदेशों में भी -Darji Samaj Sandesh Website

   मित्रों,जो वेबसाइट  किसी भी जाती समुदाय  पर आधारित होती हैं उनकी  पाठक संख्या  बेहद कम होती हैं ,लेकिन दामोदर वंशीय नए गुजराती दर्जी समाज की   website  की अब तक की  पाठक संख्या  चार लाख  बीस हजार छे  सौ उनसाठ  हो चुकी  है । इतनी जबरदस्त  पाठक संख्या से सहज ही  अनुमान लगाया  जा सकता  है कि "दरजी समाज सन्देश "  https://damodarjagat.blogspot.com  वेबसाइट  को दुनिया भर  में दर्जी   समुदाय  के  लिए सामाजिक सूचनाओं  के  विश्वसनीय  स्रोत   के  रूप में मान्यता मिल रही है.  नए गुजराती दामोदर वंशीय  दर्जी समाज की  संख्या केवल 5 हजार के आस पास है । लेकिन विश्व में बसे सभी जगह के पीपा क्षत्रीय दरजी ,नामदेव दर्जी ,सौरठिया दर्जी ,देसाई दर्जी ,दक्षिणी राज्य कर्नाटक में दारजी हैं। इन्हें भावसार क्षत्रिय, चिप्पी, नामदेव सिम्पी और शिम्पी भी कहा जाता है और इनके उपनाम भी हैं,जैसे पिस्से, वेड, काकाडे और सन्यासी,मारवाड़ी दर्जी , शिंपी (दर्जी) समाज ,दामोदर वंशीय जूना गुजराती दर्जी, साई सुई सुथार दर्जी, और मुस्लिम दर्जी ईदरिस के बीच भी यह वेबसाइट बहुत लोकप्रिय है.

https://zssonline.com/

उक्त वेब साईट  देसाई साई सुथार  दरजी समाज की है .इसकी पाठक संख्या १७८८८०  है.(अपडेटेड ३/२/२०२४)

....

 *  पीपा वंशीय दरजी समाज की वेबसाइट 

https://darjirajput.blogspot.com/

उक्त  वेबसाइट  की पाठक  संख्या  8447 के लगभग है. (updated 3/2/2024)

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*दामोदर वशी जुना गुजराती दरजी समाज की वेबसाइट 

https://darjisamajbng.wordpress.com/blog/

उक्त वेबसाइट पर टेकचंद जी महाराज के फोटो पोस्ट किये हुए हैं .लेकिन इस वेबसाइट पर दरजी समाज से सम्बंधित जानकारी के लेख नहीं हैं. 

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https://darjisamajonline.com/

उक्त वेबसाइट सोरठिया दरजी समाज की है .यह समाज अहमदाबाद   और आस पास क्षेत्रों  में बसा हुआ है. 

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 ज्ञातव्य है की भारत में दर्जी जाती की संख्या ३ करोड़ २५ लाख है.



-डॉ  दयाराम आलोक :अध्यक्ष  दामोदर  महासंघ

19.1.24

कालूराम जी राठौर आसंदिया की वंशावली -madanlal budha,parvatlal garoda,shamlal garoda,gori shankar budha,mukesh garoda

इस वंशावली के निर्माण मे विभिन्न स्रोतों से प्राप्त जानकारी उपयोग मे लाई गई है फिर भी वंशावली त्रुटिविहीन हो ,ऐसा प्रयास किया गया है|
*वंशावली मे शीर्ष पुरुष के पुत्र और पुत्री के वंशज शामिल किए जाते हैं|
*जन्म और मृत्यु दिनांक मे कुछ गलत हो तो सूचित करें|
*पीढ़ी बताने वाले अंक नाम के पहिले यानि शुरू मे लिखे गए हैं|
*जिस पुरुष की पत्नि का उल्लेख नहीं है ,आप जानते हों तो जरूर बतावें|
*  इस वंशावली के किसी भी सदस्य का  विवरण और फोटो देखने के लिए उस लिंक को खोलें.प्रत्येक लाइन एक लिंक के रूप में है.


1. कालूराम जी राठौर आसंदिया b. 7 सितम्बर, 1881; d. 8 मार्च, 1933
2. हीरालाल जी राठौर दर्जी बूढा b. 6 मार्च, 1904; d. 2 फरवरी, 1965
└ +धापू बाई राठौर w/o हीरालाल जी राठौर बूढ़ा b. 2 जनवरी, 1930; d. 4 जून, 1988
3. मदन लाल राठौर दर्जी बूढा b. 1950
└ +शामु बाइ-w/o मदन लाल राठौर बूढ़ा
└ +शामा बाई-मदनलाल राठौर दर्जी बूढा b. 1954
4. गौरी शंकर राठौर गरबड़ा
3. पर्वत लाल राठौर दर्जी गरोड़ा
└ +रामकन्या गोयल -पर्वतलाल जी राठौर गरोड़ा
4. शामलाल जी राठौर गरोड़ा
5. सोना पिता श्यामलाल राठौर गरबड़ा b. 1992
5. सपना पिता श्याम लाल राठौर गरबड़ा b. 1996
5. रोहित राठौर गरबड़ा b. 1999
5. विष्णुबाई पिता श्याम लाल राठौर गरबड़ा b. 2005
4. मनोहर लाल राठौर गरबाड़ा -99773-37090
└ +मीनाक्षी गोयल-मोहन लाल जी राठौर गरोड़ा b. 1980; d. 31 अक्टूबर, 2020
5. दीपक राठौर गरबड़ा b. 1995
5. शिवम राठौर गरबड़ा b. 2008
5. सागर राठौर गरबड़ा
4. मुकेश राठौर गरोड़ा
3. मोहन बाई w/o गोयल दर्जी धरनावद
3. गीता बाई w/o -----दर्जी धन्दोडा
3. सीता बाई राठौर w/o भेरुलाल गोयल धरनावद
└ +भेरुलाल जी गोयल धरनावद b. 1950
4. नन्दलाल गोयल दर्जी धरनावद b. 1975
└ +दुर्गा बाई पिता राम चंद्र उदेराम सोलंकी दर्जी अरनोद b. 1977
5. दीपक गोयल दर्जी धरनावद b. 1997
5. पूजा पिता नन्दलाल गोयल दर्जी धरनावद b. 1999
4. लक्ष्मी गोयल-अशोक सोलंकी अरनोद b. 1979
└ +अशोक कुमार सोलंकी अरनोद b. 1973
5. शालू पिता अशोक सोलंकी अरनोद b. 1995
5. राखी पिता अशोक सोलंकी अरनोद b. 1997
5. निशा पिता अशोक सोलंकी अरनोद b. 1999
5. मनीषा पिता अशोक सोलंकी अरनोद b. 2002
5. दिव्या पिता अशोक सोलंकी अरनोद b. 2006
5. अरविंद सोलंकी अरनोद b. 2011
4. राजेंद्र गोयल दर्जी धरनावद d. 1983
└ +किरण पिता भैया लाल दस्मेर चकावटी जिला बलाघाट b. 1989
5. खुशी पिता राजेंद्र गोयल दर्जी धरनावद b. 2011
5. गोपी पिता राजेंद्र गोयल दर्जी धरनावद b. 2013
नोट -इस वंशावली  की जानकारी  में कुछ संशोधन करना हो तो सूचित कीजिये 


डॉ.दयाराम आलोक,वंशावली लेखक