23.1.24

दर्जी संत श्री गुरू टेकचंद जी महाराज की जीवन गाथा - Darji Saint Tekchand Maharaj




दर्जी संत श्री टेकचंद जी महाराज का जन्म विक्रम संवत 1805 में शाजापुर जिले के आलरी गांव में पूर्णिमा के दिन हुआ था। ग्राम आलरी झोंकर मैक्सी रेलवे स्टेशन से 1.50 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है । उनकेपिता का नाम उदयराम जी तथा माता का नाम रुक्मनिबाई था ।उस समय आलरी गाँव ग्वालियर राज्य के अधीन था। श्री उदयाराम जी का परिवार ग़रीब लेकिन सम्मानित था । वे एक कपड़ा व्यापारी थे । उनके घर मे जल्द ही एक बालक का जन्म हुआ जिसका नाम टेकचंद रखा गया | यह बालक उनके घर मे खुशिया शांति ओर सम्रद्धि ले कर आया| उनके घर मे आए दिन धार्मिक अनुष्ठान होते रहते थे इसीलिए टेकचंद जी की मनोव्रति बचपन से ही धार्मिक हो गई थी | जब वे ५ वर्ष के हुए तब उन्हे विधयालय भेजा जाने लगा| छोटा सा गॉव होने के कारण उनकी प्राथमिक शिक्षा संतोष जनक नही थी | जब वे १२ साल के हुए तब वे सिलाई का कार्य करने लगे एवं उनके पिताजी उन्हे अपने साथ व्यवसाय के लिए ले जाने लगे | कार्य मे मान ना लगने के कारण व्यापारियो की शिकायते आने लगीजिसके कारण उनके पिताजी ने उन्हे घर छोढ़ने को कहा | अपने पिताजी के ऐसे कठोर वचन सुनने के बाद उन्होने सोचा की इस कठोर दुनिया मे भगवान के अलावाकोई भी साथी नही है| शांतिपूर्ण मृत्यु भगवान की पूजा के बिना संभव नहीं होगा। उसी समय उन्होने माता पिता को दिल से नमन् करके घर का त्याग कर दिया | घर छोढ़ने के समय उनकी आयु मात्र १८ वर्ष थी | घर छोढ़ने के पाश्चयात उन्होने गाँव गाँव घूमकर धर्म ओर ज्ञान का प्रसार किया | अपनी इस यात्रा के दौरान गाँव गाँव घूमते हुए एक दिन संवत 1825 (1767) को गाँव उन्हेल पहुचे | वहाँ उनकी भेंट संत कबीर के अनुयायी संत परसराम जी से हुई | विक्रम संवत १८२८ में (१७६८) पूर्णिमा के दिन गुरु परसराम जी महाराज ने उन्हे उपदेश दिया एवं अपना शिष्य बना लिया | विक्रम संवत 1841 में (1784) मे उन्होने अपनी तीर्थ यात्रा उज्जैन से शुरू की जिसमे वे महान्कलेश्वर से ओंकारेश्वर होते हुए काशी (बनारस) पहुचे | जहा वे कई संतो के संपर्क मे आए ओर भगवान की उपासना की |यहा उन्होने अपना कुछ समय सत्संग ओर भगवान काशी विश्वनाथ के दर्शन का लाभ लेते हुए बिताया | उसके बाद उन्होने बद्रीनाथ, केदारनाथ, जगन्नाथ, रमेश्वरम ओर द्वारका की अपने चार धाम की यात्रा पूर्ण की | टेकचंद जी ने अपने धार्मिक यात्रा जारी रखी वे मथुरा, वृंदावन, हरिद्वार, अमरनाथ ,प्रयाग , चित्रकूट, मदुरै , काशी,तिरुपति, भिमाशंकर,बैजनात , जूनागढ़ , नतद्वारा ,पुष्कर ओर कई ओर जगहो पर एवम् नदियो जेसे गंगा ,यमुना , शरयू ,गोदावरी ,कृष्णा , कावेरी नर्मदा, इत्यादि मे स्नान किया | एक दिन विजयदशमी विक्रम संवत 1848 (1790) के दिन वे उज्जैन लौट आए एवम् क्षिप्रा नदी मे स्नान करके एवं भगवान महानकलेश्वर की पूजा करकेउन्होने अपने यात्रा सामप्त की | कार्तिक शुक्ला पक्ष की ग्यारस को वे संत कबीर के मंदिर के दर्शन की इच्छा से वे ग्राम झोंकर (माक्सी) पहुचे | एक बार नवरात्रि के दौरान विक्रम संवत 1849 (1794). को उन्होने ग्राम झोंकर मे अपने आध्यात्मिक ज्ञान के लिए करीब ९ दिन समधी मे गुज़रे | उसके एक वर्ष बाद वेउज्जैन लौट आए जहा उन्होने ४ महीने बिताए | उसके बाद कार्तिक शुक्ला विक्रम संवत 1850 को वे ग्राम करछा आए जो की उज्जैन से १२ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है | यहाँ उन्होने फिर से करीब ४० दिन समाधि मे बिताए | हिंदू नव वर्ष दिवस गुडी पड़वा पर विक्रम संवत 1858 में अपनी आत्म ज्योति बढ़ने हेतु वे ध्यान कर रहे थे | उनकी एसी भक्ति देख प्रभु श्री हरी उनपर प्रसन्न ऊए तथा उन्हे दर्शन दिए | प्रभु ने उन्हे अष्ट सिद्धि ओर नवनिधि का ज्ञान भी दिया | करछा मे रहने के दौरान सुबह ब्रह्म मुहूर्त मे उठकर प्रतिदिन उज्जैन जाकर क्षिप्रा नदी मे स्नान करके आना उनकी दिनचर्या का अभिन्न अंग था|यह क्रम करीब २ वर्षो तक चला | उनकी इस भक्तिमय गतिविधि को देखकर एक दिन प्रसन्न होकर माता क्षिप्रा ने उन्हे दर्शन देकर कहा की उन्हे प्रतिदिन अब इतनी दूर आने की आवश्यकता नही है | उनपर प्रसन्न होकरवे अब उनके आश्रम के समीप से ही बहेंगी | इस्तेमाल किया वहाँ नदी से, तब आने के लिए ही अपने आश्रम के निकट प्रवाह होगा, ओर वे प्रसन्नता के साथअपनी दैनिक दिनचर्या का पालन करने लगे | ६३ वर्ष की आयु मे संत श्री टेकचन्द जी महाराज ने करछा आश्रम मे पूर्ण रूप से समधी लेने का निश्चय लिया | यह समाचार सुनते ही ग्वालियर के तत्कालीन महाराज श्री दौलत राव जी सिंधिया स्वयं उनके दर्शन करने आए | ओर उसके बाद श्री टेकचंद महाराज जी ने समधी ले ली |



विस्तृत कथानक 

पांच वर्ष की अवस्था में उन्हें पाठशाला भेजा गया ! ग्राम में रहने के कारण उनकी पारम्भिक शिक्षा कोई विशेष नहीं हो सकी ! परन्तु इश्वर भक्ति और सत्संग को बड़े चाव से सुनते थे ! ग्यारह वर्ष की आयु में उन्हें यगो पित धारण कराया गया था ! बारह वर्ष की आयु में पिताजी ने इन्हें भी सिलाई के काम पर बैठा दिया तथा हाट बाजार करने के लिए भी साथ ले जाने लगे थे !
घर में धार्मिक वातावरण होने से श्री टेकचन्द्र जी की विचारधारा बचपन से ही धार्मिक रही ! एक समय की बात है श्री उदयराम जी को मोतिझिरा एवं  खासी से तकलीफ होने पर तबियत कुछ नरम थी !अपनी धर्म पत्नी से कहा की मेरी तबियत नरम है ! धर्मपत्नी ने उन्हें गर्म दूध के साथ दवाई दी और कहा की आपको अपना कारोबार बच्चों को सोप देना चाहिए ! धंधा न कर सकने के कारण उन्होंने अपनी पत्नी की सलाह से तीनो पुत्रों को बुलाया ! उनके नाम अमीचंद , तुलसीराम ओर टेकचंद थे ! जब उन्हें बुलाया तब वे अन्य बच्चों के साथ भक्त के रूप में भजन कीर्तन गा-गा कर खेल रहे थे ! उनके कीर्तन का मुखड़ा था : -

! नन्द नंदन असुर निकंदन , भवभय भंजन हारे या !

विपिन बिहारी जनमन हारी, श्याम बांसुरी वारे या !!

भक्त जनन के अरु कवियन के , मन मंदिर उजियारे आ !

भारत भाग्य उदय करने, मेरे श्री कृष्णा प्यारे आ !!

माता पिता के बुलावे का आभास पाकर वे घर आये ! पिताजी ने तीनो भाई से कहा बाजार हाट में जाकर कपड़े बेचोगे तो अच्छा होगा ! क्योकि मेरी हालत ठीक नहीं है और में तुम्हारे साथ बाजार हाट करने के लिए भी असमर्थ हु ! पिताजी की इस आज्ञा का पालन करने तीनो भाई तैयार हो गए ! अमिचंदर और तुलसीराम को एक गाँव तथा टेकचन्द्र को दुसरे गाँव भेजा !साथ ही उन्होंने कुछ व्यापारियों हरिरामजी , रतीरामजी , गोविन्दजी , आदि के नाम बताये ! श्री टेकचंद जी ने प्रस्थान करने से पूर्व मन ही मन ईश्वर
का स्मरण करते हुए प्रार्थना की प्रभु मुझे इस कार्य को सच्चे रूप से निभाने की शक्ति दे और बाद में वे माता पिता को नमन कर प्रस्थान किया ! बाजार में अपनी दुकान लगा कर कपड़े बेचने लगे सबने देखा की ये नया व्यापारी लड़का कोन है ? तब टेकचन्द्र जी ने कहा की आपने मुझे कभी नहीं देखा में नया हूँ परन्तु में उदयरामजी का पुत्र हूँ ! सब दूकानदार भी अपने अपने काम में लग गए !
उस दिन बाजार में टेकचन्द्र जी के माल की बिक्री अच्छी हुई ! इसे देखकर कुछ व्यापारी जलन करने लगे ! दुसरे हाट में टेकचन्द्र ने अपनी दुकान अन्य व्यापारियों के साथ लगाई ! उसमे बिक्री बहुत हुई ! कभी तो ऐसा भी हुआ की उन्होंने आधे दाम में ही कपड़ा दे दिया ! जिसे देखकर अन्य व्यापारी टेकचन्द्र के पिता उदयरामजी के पास जाकर कहने लगे की तुम्हारे लड़के ने तो बहुत कम दाम में कपड़ा बेच दिया ! ग्राहक की दयनीय अवस्था को देखकर एक दो को बिना पैसे लिए ही माल दे दिया ! जिसे देखकर अन्य व्यापारी टेकचन्द्रजी के पिता उदयरामजी के पास जाकर कहने लगे की तुम्हारे लड़के ने तो बहुत कम दाम में कपड़ा बेच दिया है ! इससे बाजार भाव पर बुरा असर पड़ता है ! उसकी सत्यता की जानकारी उन्ही के सामने लेने पर उनके पिताजी ने जितना माल दिया था वह रुपये का हिसाब पूरा पाया ! जिसे देखकर माता-पिता एव व्यापारी वर्ग आश्चर्य चकित रह गए !

सत्संग का प्रभाव


इसके बाद एक समय की घटना है की टेकचन्द्र मक्सी से बाजार करके घर लौट रहे थे ! रास्ते में साधू संतों की एक टोली मिली ! आपने सब रकम उनके लिए खर्च कर दी और खाली हाथ घर वापस आ गए! उस दिन पहले की भांति हिसाब नहीं बताया सुबह होते ही फिर सब के सब दूकानदार उदयरामजी के यहाँ आकर टेकचन्द्र के विरुद्ध कई प्रकार की बातें बनाकर कठोर शब्दों में उलाहना देने लगे ! एक ने तो ये तक कह दिया की तुम्हारे बेटे ने क्या हिसाब दिया की उसके इतनी तरफदारी कर रहे हो !वह हिसाब क्या बताएगा उसने तो सारा का सारा धन साधू संतों को दे दिया था ! और वह खाली हाथ घर आया है ! इस बात ने अग्नि में जलती हुई आहुति सा काम किया ! ओर पिता ने तमतमाते हुए उन् लोगों के सामने टेकचन्द्र जी को बुलाया और कहा तुम्हारे कारण मेरे साथी इतना कष्ट उठाते है यहाँ में सहन नहीं कर सकता ! कल चुपचाप आया और सो गया मुझे हिसाब तक नहीं बताया ! सार पैसा साधू संतों को खिलाकर खाली हाथ घर आया ! इस पर टेकचन्द्र जी ने कहा मेने उन्हें (दुकानदारों) को कोन सा कष्ट दिया है ! आप सच मानिये साधू संतों के बारे में संत कबीरदासजी ने कहा है –

साधू हमारी आत्मा , हम साधू के जीव

साधू में यूँ राम रहा , जो गो रस में घीव

संत हमारी आत्मा , हम संतान के देह

साधू में यूँ राम रहा , जो बदल में मेह !
यह सुनकर पिताजी बोले चल बड़ा आया , मुझसे बड़ी बड़ी ज्ञान की बातें करता है उनको परेशान करके पूछता है कोनसा कष्ट ! एकदम क्रोध में आकर उनके पिताजी ने कह दिया की अभी चले जाओ मेरे सामने से ! में कुछ सुनना नहीं चाहता ! जहाँ तुम जाना चाहो जा सकते हो ! अब तुम मेरे घर में पैर मत रखना ! तुमने घर को बदनाम कर दिया है ! मूर्ख !
गृह त्याग
श्री टेकचन्द्र ने पिता के मुख से इस प्रकार के शब्द सुने तो उनके कोमल ह्रदय को गहरा आघात पंहुचा ! उन्होंने अपने मन में अपनी आत्मा से ध्यान कर जान लिया की इस नश्वर संसार में ईश्वर के बिना और कोई मददगार नहीं है ! सद्भाव से उस ईश्वर का भजन पूजन करना ही अच्छा है ! ऐसा विचार कर अपने माता पिता भाई बहिन आदि सभी पूजनीय लोगों को मन ही मन प्रणाम कर पिता की आज्ञा शिरोधार्य करके घर छोड़कर निकल गए ! जिस हालत में पिताजी के सामने खड़े थे वैसे ही चले गए !
रास्ते में जाते हुए ईश्वर को विनय के साथ भजते जाते थे :-


विनम्र प्रार्थना

प्रभु सत्य का पथ बता दो मुझे !

आवागमन के दुःख से छुड़ा लो मुझे !!

प्रभु चरणों की शरण में लगा लो मुझे !१ प्रभु सत्य का ..........

पड़ा हु जंजाल जगत में , घोर अविध तम जहाँ !

कामादि ब्याल कराल घेरे , आहार निशि रहते तहां !!

ऐसे काल के गाल से , बचालो मुझे !! प्रभु सत्य का .......

उटाह रही तराशना की अग्नि , वासना झाल उड़ रही !

धुँआ कर्म का छाया चहु दिशि , गेल स्वजाति में नहीं !

अपने चरणों का सहारा , दिल दो मुझे !! प्रभु सत्य का .......

माया के परदे नेत्र पर है , सूझता सत्पंथ नहीं !

अगर आप भी छोड़ दोगे, फिर ठिकाना नहीं कही !!

अपने चरणों की शरण में , लगालो मुझे !! प्रभु सत्य का ........

रो रो पुकारू तुझे , अब तो सद्गुरु दो दर्शन !

तेरे सिवा नहीं कोई , जो हरे संकट भगवन !!

अब तो सुक्र्त सव्देश में , पौच दो मुझे !! प्रभु सत्य का ........

' टेकचन्द्र' उस प्रभु कृपा से , जपले सिकर्ट नाम !

इश्वर इस संसार में , संग चले सतनाम !!

सतगुरु सतनाम सवरूप , दिखा दो मुझे !! प्रभु सत्य का .....

उनके घर से चले जाने पर माता रुख्मणि को बहुत दुःख हुआ और उदयरामजी ने भी क्रोध शांत होने पर उदास स्वर में कहा देवी संसार का यहाँ नियम है की मनुष्य पर जब प्रभु कृपा करते है तो ऐसा ही होता है ! अतः जब धीरज से ही काम लेना है ! पत्नी बोली की कोई ऐसा उपाय करो जिससे मेरा पुत्र मुझे फिर से मिल जाए! पिता के अनेक उपाय करने पर भी वे घर नहीं लोटे ! जो लेने गए थे उन्हें समझा कर वापस कर दिया ! जैसे तेसे मन मारकर रहने लगे ! समय आने पर उदयरामजी ने दोनों बच्चों अमिचंद्र अवं तुलाराम का विवाह अच्छा घर घराना देखकर कर दिया ! सारे परिवार के लोग आनंद से रहने लगे लेकिन टेकचन्द्र की अनुपस्थिति खलती रही उन्होंने विक्रम सम्वत १८२३ सन १७६६ में गृह त्याग किया उस समय उनकी उम्र १८ वर्ष की थी ! अभी तक श्री टेकचंद सांसारिक जीवन पर सवार थे किन्तु घर से निकलने के पश्चात् अपने जीवन को सार्थक बनाने के किये भक्ति व ज्ञान के सागर में तेरते रात दिन प्रभु के चरणों को अपने ह्रदय में धारण कर गाँव-गाँव घुमते फिरते रहे ! श्री टेकचन्द्र महाराज को भी माता- पिता तथा भाई बहनों की याद कुछ दिनों तक आती रही ! किन्तु ज्यो ज्यों ज्यों भगवत भजन एवं सत्संग में रमते गए त्यों त्यों याद बिसरते गए ! लगाव कम होता गया और एक समय ऐसा आया जब उनके ज्ञान चक्षु खुल जाने से वे गृहस्थ जीवन से मुक्त हो गए !

गुरु दीक्षा

विक्रम सम्वत १८२४ सन १७६७ में घुमते घुमते एक दिन वे उन्डेल नाम के गाँव में पहुचे ! उन्डेल में कबीर पंथी एक संत श्री परसरामजी महाराज निवास करते थे ! वही उन्हें उनका सत्संग मिला जिससे प्रभावित होकर उस अत्यंत ही सुन्दर एवं रमणीय स्थान पर यदि मुझे अपना शिष्य बनाकर रहने का मोका दें तो कितना अच्छा हो , ऐसा विचार कर श्री टेकचन्द्रजी ने श्री गुरु परसरामजी के पास जाकर साष्टांग प्रणाम किया और आज्ञा पाकर कहा- गुरु महाराज आप मुझे अपना शिष्य बना लें जिससे आपके चरणों की सेवा करके कृतार्थ हो जाऊ ! यहाँ वचन सुनकर श्री गुरु महाराज परसरामजी ने सार रहस्य व चमत्कार पहचान लिया और कुछ सोच कर कहा बेटे तेरे माता पिता धन्य है जिन्होंने तेरे जैसे पुत्र को जनम दिया ! में तुम्हे अपना शिष्य अवश्य बनाऊंगा ! तुम अभी आश्रम में ही रहो ! आश्रम के सभी शिष्यं को बुलाकर कहा - टेकचन्द्र यही रहेगा तथा शुभ दिन व समय देखकर दीक्षा दी जाएगी ! कुछ दिन बीतने के बाद विक्रम सम्वंत १८२५ सन १७६८ में वैशाख शुक्ल पूर्णिमा के दिन श्री गुरु परसरामजी महाराज ने श्री टेकचन्द्र जी को साधू संत होने की गुरु दीक्षा देकर अपना शिष्य बनाया ! उनके बारह गुरु भाई एवं एक गुरु बहिन थी जिनके नाम निम्नानुसार है :


१ श्री भीकारीदासजी

२ श्री मोतिदासजी

३ श्री मनोहर दासजी

४ श्री आत्मदासजी

५ श्री तेजुदासजी

६ श्री गणेशदास जी

७ श्री सिद्धनाथजी

८ श्री गरीबनाथजी

९ श्री केवलनाथजी

१० श्री ऐकनाथजी

११ श्री सिंगाजी महाराज

१२ श्री रामजी बाबा

१३ बाई रामदास

सभी शिष्यों से गुरूजी बाई रामदास को अधिक चाहते थे ! श्री टेकचन्द्र जी सभी शिष्यों में बहुत ही चतुर एवं ज्ञान के धनि थे ! धीरे - धीरे गुरूजी का स्नेह श्री टेकचन्द्रजी के प्रति बढ़ता गया ! श्री टेकचन्द्र जी भजन भी बहुत गया करते थे ! इनकी वाणी बहुत मधुर थी वे अपने गुरुभाइयों के साथ भी सहिष्णुता का व्यव्हार रखते थे ! आश्रम में सत्संग पाकर भक्त टेकचन्द्र जी रात दिन इश्वर चर्चा में मगन रहेते थे ! इश्वर चर्चा में इनका विवेक रुपी भण्डार अगम्य व अक्षय होने लगा ! उनकी क्षमा की विचारधारा ..............ता से परिपूर्ण तथा उच्च कोटि की होती थी जिससे स्वयं गुरु परसराम भी अत्यंत प्रभावित होकर उनके ह्रदय से प्यार करने लगे ! श्री टेकचन्द्र जी को अपने गुरु की सेवा करते तपस्या में १२ वर्ष व्यतीत हो गए ! वि . सं . १८३४ सन १७८० में एक दिन संत श्री परसरामजी महाराज ने अपने सभी शिष्यों को बुलाकर तीर्थ यात्रा के विचार से अवगत कराया ! साथ ही श्री टेकचन्द्र जी को अपनी अनुपस्थिति में आश्रम का उत्तराधिकारी बनाने की भी जानकारी दी और कहा जब तक में वापस नहीं आ जाता तब तक यहाँ की सम्पूर्ण जवाबदारी टेकचन्द्र को सोंप रहा हूँ !गुरु परसरामजी ने बाई रामदास को पास बुलाया और कहा की मेरे बाद तुम टेकचन्द्र को ही गुरु मानना ! जिस प्रकार से मेरी सेवा करती हो उसी प्रकार से उनकी करना !परन्तु बाई रामदास को यहाँ बात अच्छी नहीं लगी क्योकि टेकचंद्र अभी गुरु के योग्य नहीं है ! वह अभी इतना सिद्ध पुरुष नहीं हो गया है जो हम उनकी सेवा करें ! इस पर टेकचन्द्र जी ने कहा बहन तुम सच कहती हो आपका यहाँ तुच्छ सेवक कहाँ - भला जुगनू की तुलना सूर्य से ! ऐसा नहीं होना चाहिये ! यहाँ सुनकर गुरु परसरामजी ने सभी को कहा तुम्हे गुरु की आज्ञा का पालन करना चहिये जो गुरु की बात टालता है वह सच्चा संत नहीं बन्न सकता ! उससे साधू नहीं होना चहिये ! बिना सेवा किये आत्मा निर्मल नहीं हो सकती ! बाई रामदास का विरोध देखकर गुरूजी ने तीर्थयात्रा का विचार स्थगित कर दिया ! सभी आनंद पूर्वक रहने लगे !

गुरु आश्रम का त्याग

बाई रामदास की व गुरूजी की बात सुनकर श्री टेकचन्द्र को झटका लगा और उन्होंने अपना मन में विचार किया कुई गुरूजी मुझे बढ़ा भारी त्यागी समझकर मेरी गुरु बहन को सेवा में भेज रहे है ! यदि में यहाँ मुझे बड़ा भारी त्यागी समझ कर मेरी गुरु बहिन को सेवा में भेज रहे है ! यदि में यहाँ रहता हु तो गुरु भाइयों का द्वेष बढेगा द्वेष बढ़ाना अपना काम नहीं है , अपना काम तो दीं दुखी जीवों की सेवा करना और सत्य का उपदेश देना है ! अतः इन् सब बातों से बचने के लिए मुझे आश्रम छोड़ देना चहिये ! ऐसा विचार कर श्री टेकचन्द्र जी ने गुरु भाइयों व बहनों को दंडवत प्रणाम करके अर्ध रात्रि में बिना गुरूजी से मिले चुपचाप वहां से भ्रमण करने निकल पड़े !सुबह होने पर श्री गुरूजी परसरामजी को सारी घटना मालूम पड़ी तो अत्यंत दुखी हुए ! संत श्री परसराम ने सभी शिष्यों को बुलाकर कहा ऐसा मालूम होता है की टेकचन्द्र आश्रम छोड़कर कही चले गया है टेकचन्द्र वास्तव में आश्रम में सर्व शिरोमणि विद्वान था ! संत बोले हमारे टेकचन्द्र का आदर्श , ईश्वर भक्ति में लगन , गुरु से अद्वितीय थी , शिष्यों ने कहा - हमारी अखंड सुमरनी का एक महत्वपूर्ण मनका कम हो गया ! हम तो उनकी तुलना में पासंग भी नहीं !उन् पर प्रभु की असीम अनुकम्पा थी ! बातचीत करते करते श्री परसरामजी व अन्य शिष्यों का मन भी श्री टेकचन्द्र के अभाव में खिन्न हो गया !
परसरामजी ने जगह जगह भक्तों को भेजकर अपने शिष्य टेकचन्द्र की तलाश कराई जब कही पता नहीं लगा तो वे सब इस बात पर उतारू हो गए की आज नहीं तो कल हम टेकचन्द्र को ढूँढकर ही रहेंगे !

अवंतिका आगमन-

उधर गुरु आश्रम से निकलने के बाद श्री टेकचन्द्रर्जी भटकते भटकते उज्जैन नगरी में पुच गए वहां पर भक्त शिरोमणि मीराबाई का एक बड़ा सुन्दर स्थान बना हुआ था उस्सी स्थान पर संत श्री टेकचन्द्रजी में अपना आसन जमा लिया ! धीरे धीरे उनकी प्रतिमा दिन दोगुनी रात चोगुनी बढ़ने लगी ! दिन रात मण्डली चाहे साधू हो या गृहस्थी मिलने व सत्संग करने को आने लगे ! उस साधारण प्राणी ने वह जादू कर दिया था की जो वहां आश्रम जाता उसका आश्रम छोड़ने को जी नहीं करता था देखते देखते सेकड़ों व्यक्ति श्री टेकचन्द्र जी महाराज के प्रवचन को सुनकर ईश्वर में श्रद्धा रखने लगे और उन्हें अपना गुरु मानने लगे ! गुरु दीक्षा देने का कार्य भक्तों के आग्रह होने पर स्थगित रखा ! उनका कहना था की तीर्थ यात्रा करने के बाद ही में यहाँ कार्य हाथ में लूँगा ! दिन प्रतिदिन भक्तों की श्रद्धा अधिकाधिक बढ़ने लगी इनके परिणाम स्वरूप भक्तों द्वारा एक श्री राधा कृष्णा मंदिर का निर्माण किया तथा उनके चरणों के चरण पादुका की ! जो आज भी ब्राहमण गली बहादुरगंज में स्थापित है!
उज्जैन में रहते उन्होंने अपने प्रवचन में कहा - यहाँ संसार माया मोह से लिप्त हुआ है ! इससे प्राणी मात्र को विर्रक्त रहेना ही हितकर है ! तभी एक भक्त ने प्रश्न किया स्वामी गृहस्थ में फस प्राणी इस माया मोह से कैसे अलग हो सकता है ?
इस पर श्री टेकचंद जी ने कमल का उदाहरण देकर कहा - अवश्य हो सकता है जिस प्रकार कमल पर जल डालने से कमल का पत्ता गोल नहीं होता वरन जल को नीचे गिर देता है उस्सी प्रकार ग्रहस्थ में रहकर के मनुष्य मुक्ति को प्राप्त कर सकता है ! त्याग तो करना ही होगा ! कलयुग में तो सांसारिक प्राणी के थोड़े से श्रम से प्रभु प्रसन्न होते है ! प्रभुका स्मरण सच्चे भाव से जो करता है , चाहे वह अल्पसमय के लिए ही क्यों न हो , घाट घाट के अंतर्यामी प्रभु उसकी पुकार अवश्य सुनते है !

तीर्थ यात्रा-

एक दिन श्री टेकचन्द्र जी महाराज ने अपनी तीर्थ यात्रा की इच्छा भक्तों के सामने रखी सभी उपस्थित भक्तों ने मिलकर उनके खर्च हेतु धन राशी एकत्रित कर भेंट की , परन्तु उन्होंने आश्रम की व्यस्था हेतु वापिस कर दिया और कहा की मुझे एक पैसा भी नहीं चहिये प्रभु खुद मेरी पूर्ती करता है सो इसे में क्यों अपने पास रखु ! दुसरे दिन सबेरे ही सब भक्तों ने अत्यंत श्रद्धा से श्री टेकचंद्रजी महाराज को भगवान् श्री महाकालेश्वर के दर्शन के पश्चात तीर्थ यात्रा हेतु प्रस्थान कर भाव पूर्ण विदा किया ! श्री टेकचन्द जी महाराज ने अपनी तीर्थ यात्रा उज्जैन से चित्र शुक्ल पक्ष पुष्य नक्षत्र में विक्रम सम्वत १८४१ सन १७८४ में प्रारम्भ की !
उज्जैन से ओंकारेश्वर होते हुए काशी पहुंचे काशी में आपका कई साधू संतों एवं ईश्वर भक्तों से संपर्क हुआ ! वही रहकर कुछ समय ईश्वर भजन एवं सत्संग में व्यतीत किया ! और विश्वनाथ के दर्शन का लाभ लिया ! तत्पश्यात आपने चारो धाम बद्रीनाथ , केदारनाथ , जगन्नाथ , रामेश्वर और द्वारिका की यात्रा की ! संत श्री टेकचन्द्रजी महाराज तीर्थ यात्रा करते हुए मथुरा , वृन्दावन , हरिद्वार , अमरनाथ , प्रयाग , चित्रकूट , मदुराई कशी कांची , श्री शैलम , तिरुपति , भीमशंकर , बैजनाथ त्रयम्बकेश्वर , सोमनाथ , जुनागड़ , गिरनार , डाकोर , नाथद्वारा , पुष्कर आदि मुख्या - मुख्या स्थानों पर होते हुए एवं प्रमुख नदियाँ गंगा , यमुना , गोदावेरी , कृष्णा , सरयू , कावेरी , नर्मदा आदि में स्नान करते हुए आश्विन शुक्ल पक्ष में विजयादशमी के दिन विक्रम संवत १८४७ सन १७९० में वापस उज्जैन आकर शिप्रा (शिवप्रिया) में स्नान करके महाकालेश्वर के दर्शनकर तीर्थ यात्रा समाप्त की !

गुरु पद को प्राप्ति-

उज्जैन के भक्तों को इसकी सूचना पूर्व में ही मिल चुकी थी ! संत श्री टेकचन्द्रजी महाराज के उज्जैन आते ही भक्त लोगों ने महाकाल मंदिर पहुंचकर उनका भव्य स्वागत किया ! सभी लोगों ने दंडवत प्रणाम कर उनका आशीर्वाद लिया बाद में हाथी पर उनकी सवारी महान्कलेश्वर मंदिर से निकली जो उज्जैन के प्रमुख मार्गों से होती हुई श्री राधाकृष्ण मंदिर पहुची ! तीर्थ यात्रा से आने के नाद उन्होंने भक्त जनों के आग्रह पर गुरु मन्त्र देना प्रारम्भ किया जिससे वे गुरूजी कहलाये ! प्रबल ईश्वर भक्ति के कारण संत कहलाये !

प्रस्थान-

तीर्थ यात्रा के समय मार्ग में न-न प्रकार के उच्च कोटि के संत महात्माओं , महंतों , महापुरसों एवं भगवत भक्तों से भी सत्संग करने का अवसर प्राप्त हुआ ! उससे आपके व्यक्तित्व में एक महँ परिवर्तन आ गया था ! आप सह्न्ति एवं गाम्भीर्य के प्रतिरूप बन गए थे ! उनके गुरु परसरामजी के द्वारा बताई संत कबीर की बात याद आने पर श्री टेक्चंद्र्जी महाराज ग्राम झोंकर में संत कबीर मंदिर के दर्शन करने की इच्छा से मक्सी होते हुए कार्तिक शुक्ल एकादशी वि.सं.१८४७ सन १७९० के दिन ग्राम झोंकर पहुचे ! वहां का वातावरण उन्हें बहुत ही शांत एवं स्वच्छ मालूम हुआ ! संत श्री टेक्चंद्र्जी महाराज ने अपना आसन कबीर मंदिर में ही जमाया ! वहां पर मंदिर के पास ही एक बड़ा इमली का पेड़ था !
एक बार श्री गुरु महाराज संत श्री  टेकचन्द जी  ने अपने संयम को अडिग बनाने एवं अधिक आध्यात्मिक  ज्ञान की  वृद्धि हेतु ग्राम झोंकर में इमली के पेड़ के पास ही नवरात्री में वि.सं. १८४९ सन १७९२ में ८ दिन की समाधी ली थी जिससे उनका वर्चस्व पास के गाँव में दूर दूर तक फ़ैल गया और भक्तों द्वारा समाधी के पास ही सुबह शाम वहां कीर्तनं होता था ! आठ दिन की अविरल समाधी लेने के पश्चात संत अपनी मुद्रा भंग करके वास्तविक स्थिति में आये ! उन्हें फलों का रसपान कराया ! गगन भेदी आवाज़ से उपस्थित जन समुदाय ने जय-जयकार की !


आरती टेकचंद जी महाराज की


ॐ जय गुरुदेव हरे, ॐ जय गुरुदेव हरे,
दीनजनों के संकट, तुम गुरु दूर करें ,

पुण्य पयोनिधि पावन, आलरी की धरती,
हर्ष विभोर धरा ने, गोदी निज भर दी ,

लता पुष्प लहराये, सरस समय आया,
सुमन गंध अंजलि भर, श्रद्धानत लाया ,

एक अलौकिक क्षण था, बिखरी नव आभा ,
गुरु के चरण परत ही, दुख विषाद भागा ,

रुकमणी अंक किलोलित, उदय गोद खेले,
प्रमोदित मात-पिता हो, बालक चाल चले ,

दामोदर कुल हर्षित, गुरु प्रसाद पाया ,
पावन स्वर गुरुवर का नवजीवन लाया ,

कलि कुल कलुष सने है, मुक्ति कौन करे,
अगम भाव भावन को, अभिनव आन धरे ,

कलयुग कलुष मिटाने, कड़छा मन भाया ,
साधि साधना तुमने, हटि गहन माया ,

जान अकिंचन हमको, ज्ञान चक्षु दे दो ,
भव सागर तर जावें, बीज मंत्र कह दो ,

शरण पड़े हम तेरी, अवलंबन प्रभु दो ,
उभय लोक सुखकारी, वरद हस्त धर दो ,

हीरा तो पत्थर हैं, चमक तुम्हीं देते ,
मोह जड़ित जड़ मन को, ज्योतित कर देते ,

विनय भाव जो जन, गुरु महिमा गावे ,
आनंदित हो जीवन, भव से तर जावे ,

ॐ जय गुरुदेव हरे, ॐ जय गुरुदेव हरे ,
दीनजनों के संकट, तुम गुरु दूर करें ,

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गुरुदेव पर पर लिखे साहित्य से लेख ने आकार लिया है .सभी के प्रति कृतज्ञता  ज्ञापित करता हूँ. --डॉ.दयाराम  आलोक :अध्यक्ष दामोदर दरजी महासंघ 

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