6.1.20

गोत्र क्या है और इसकी उत्पत्ति कैसे हुई?



गोत्र का इतिहास बहुत पुराना है. इसकी जड़ें इंसान की घुमक्कड़ अवस्था यानी सभ्यता शुरु होने के पहले के वक्त के टोटेम और टैबू (निषेध) तक जाती हैं.
टोटेम (सामुदायिक पहचान) जानवरों और वृक्षों आदि से जुड़े हुए थे. इनमें से कुछ नाम बाद तक भी बने रह गए. जैसे मत्स्य, मीना, उदुंबर, गर्ग (सांड़), गोतम (सांड़), ऋषभ (वृषभ), अज (बकरा), काक (कौआ), बाघ, पैप्पलाद (शुक), तित्तिर, कठ, अलि (भ्रमर) आदि.
हालांकि इनमें से कुछ लोगों को ऋषि मुनियों ने भी अपनाया, लेकिन आर्थिक और सांस्कृतिक विकास के क्रम में गुरु या ऋषि-मुनियों के नाम से अपना संबंध जोड़ते हुए नई पहचान गोत्र के रूप में आई.
एक ही प्राचीन ऋषि आचार्य के शिष्यों को गुरुभाई मानते हुए पारिवारिक संबंध स्थापित किए गए और जैसे भाई और बहन का विवाह नहीं हो सकता उसी तरह गुरुभाइयों के बीच विवाह संबंध ग़लत माना जाने लगा.
आचार्यों-ऋषियों के नाम से प्रचलित गोत्र
सबसे पहले गोत्र सप्तर्षियों के नाम से प्रचलन में आए. सप्तर्षियों मे गिने जाने वाले ऋषियों के नामों में पुराने ग्रथों (शतपथ ब्राह्मण और महाभारत) में कुछ अंतर है. इसलिए कुल नाम- गौतम, भरद्वाज, जमदग्नि, वशिष्ठ (वशिष्ठ), विश्वामित्र, कश्यप, अत्रि, अंगिरा, पुलस्ति, पुलह, क्रतु- ग्यारह हो जाते हैं.
इससे आकाश के सप्तर्षियों की संख्या पर तो कोई असर नहीं पड़ता, पर गोत्रों की संख्या प्रभावित होती है. फिर बाद में दूसरे आचार्यों या ऋषियों के नाम से गोत्र प्रचलित हुए.
बृहदारण्यक उपनिषद में अंत में ऐसे कुछ ऋषियों के नाम दिए गए हैं. इन ऋषियों में अनेक के नाम आदिम माने जाने वाले आटविक समुदायों में आज भी पाए जाते हैं.
इसका कारण यह है कि सभी वर्णों के लोग कृषि से पहले आखेट और वनकंदों, फलों आदि पर निर्भर करने वाले वनचरों से ही निकले हैं.
कुछ दशक पहले तक जब आर्यों के आक्रमण की कहानियों को इतिहास का सच माना जाता था इस समस्या को समझने में नामी इतिहासकार भी चक्कर में पड़ जाते थे.
अब जब उसकी असलियत सामने आ चुकी है, सभी उलझनें स्वतः सुलझ जाती हैं. सभ्य समाज का हिस्सा बनने में एक ही टोटेम या पहचान से जुड़े आदिम अवस्था में बने रह गए कुछ जनों, चरवाही अपना चुके कुछ जनों और ब्राह्मण बन चुके जनों में एक गोत्र या वंशागत पहचान (जैसे उदुंबर) मिलने पर किसी को हैरानी नहीं होती, उल्टे सभ्यता के प्रसार की प्रक्रिया चित्र की तरह हमारे सामने उपस्थित हो जाती है.
समुदायों ने भारतीय भूभाग में ली शरण
कश (खस), कश्यप, कशमीर (कसों का देश) काशी, कोसल, कसया (कुशीनगर), कुशिक को कसों (कशो) खसों के माध्यम से सभ्यता के प्रसार का और इन जनों के प्राचीन प्रभुत्व का चित्र उभर आता है.
सक(शक), साकेत, शक्र (इंद्र), शाक्यवंश ( गौतम बुद्ध का जिसमें जन्म हुआ था), शाकल, शाकल्य के संबंधसूत्र ही नहीं, ऐसी गुत्थियां भी समझ में आ जाती हैं जिनको पहले समझा नहीं जा सकता था.
यह भी कि विगत हिमयुग में जब स्थायी निवास आरंभ नहीं हुआ था, कहां-कहां से आकर कितने जनों या मानव समुदायों ने भारतीय भूभाग में शरण ली थी.
लेकिन कई सवाल भी हैं
हम जिस गोत्र नामावली से परिचित हैं वह वैदिक काल से पीछे नहीं जाती, पर उन ऋषियों की उससे पहले की पहचान या वंश परंपरा क्या थी?
उदाहरण के लिए विश्वामित्र, वशिष्ठ, अंगिरा अपनी वंशधरता किससे जोड़ते थे? इसकी ज़रूरत तो तब भी थी.
विश्वामित्र कुशिक या कौशिक होने का दावा करते हैं. अंगिरा का जन्म आग से है. यही दावा आगरिया जनों का है और उनकी असुर कहानी के अनुसार विश्व का पूरा मानव समाज आग से पैदा सात भाइयों की संतान है जिनमें सबसे बड़े की संतान वे स्वयं हैं.
इन्द्र का नाम शक्र ही नहीं है, ऋग्वेद में एक बार उन्हें कौशिक (कुशिकवंशीय) कहा गया है जिससे लगता है कश और शक में केवल अक्षरों का उलट फेर है.
लेकिन कई सवाल भी हैं
हम जिस गोत्र नामावली से परिचित हैं वह वैदिक काल से पीछे नहीं जाती, पर उन ऋषियों की उससे पहले की पहचान या वंश परंपरा क्या थी?
उदाहरण के लिए विश्वामित्र, वशिष्ठ, अंगिरा अपनी वंशधरता किससे जोड़ते थे? इसकी ज़रूरत तो तब भी थी.
विश्वामित्र कुशिक या कौशिक होने का दावा करते हैं. अंगिरा का जन्म आग से है. यही दावा आगरिया जनों का है और उनकी असुर कहानी के अनुसार विश्व का पूरा मानव समाज आग से पैदा सात भाइयों की संतान है जिनमें सबसे बड़े की संतान वे स्वयं हैं.
इन्द्र का नाम शक्र ही नहीं है, ऋग्वेद में एक बार उन्हें कौशिक (कुशिकवंशीय) कहा गया है जिससे लगता है कश और शक में केवल अक्षरों का उलट फेर है.
जो भी हो, वंशधरता की पहचान के तीन चरण हैं. पहला टोटेम जिसमें दूसरे जानवरों को मनुष्य से अधिक चालाक या समर्थ मान कर उनसे अपनी वंशधरता जोड़ी जाती रही.
इसकी छाया कुछ मामलों में जैसे ध्वज केतु (गरुणध्वज, वृषध्वज) आदि में बनी रही. फिर दूसरे मनुष्यों से अपने को अधिक श्रेष्ठ (मुंडा, आर्य, असुर, शक ) आदि और अंत में शिक्षा और ज्ञान का महत्व समझ में आने के बाद आचार्यों और ऋषियों के नाम से जिसे गोत्र के रूप में मान्यता मिली और ऋषियों की नामावली मे विस्तार की आवश्यकता इसलिए पड़ी कि कृषिकर्म अपना कर अपनी कुलीनता का दावा करते हुए सभ्य समाज का अंग बनने का क्रम कभी पूरी तरह रुका नहीं.



कोई टिप्पणी नहीं: