30.6.16

अखिल भारतीय दामोदर दर्जी युवक संघ (दामोदर दर्जी महा संघ ) के गठन का विवरण




दामोदर दर्जी महासंघ का गठन और सामाजिक उद्देश्य 
समाज  मे व्याप्त कुरीतियों ,कुप्रथाओ  को समाज जनो की  सहमति से  दूर करने,कई वर्षों से लंबित समाज के सत्यनारायण मंदिर डग के उध्यापन  के लिए पहल करने ,समाज मे कन्या शिक्षा को बढ़ावा देने, मोसर मे इकट्ठा परोसने की प्रथा को खत्म करने,ख़र्चीले निजी  विवाह का विकल्प तैयार करने  जैसे पावन लक्ष्यों को हासिल करने के उद्धेश्य से  श्री दयाराम जी आलोक द्वारा  शामगढ़ के पुरालालजी  राठौर के  आवास पर  समाज जनो को आमंत्रित कर  14/6/1965 को प्रथम अधिवेशन  का  आयोजन  किया गया |
  इस अधिवेशन  मे दामोदर दर्जी युवक संघ  के गठन  का निर्णय लिया गया और श्री  आलोकजी  द्वारा निर्मित एवं प्रकाशित  संविधान के  मुताबिक सर्व सम्मति  से  निम्न कार्य करिणी  का गठन किया गया -



अध्यक्ष -  श्री रामचन्द्र जी सिसौदिया ,शामगढ़ 



संस्थापक एवं संचालक - श्री  दयाराम जी आलोक,शामगढ़ 

कोशाध्यक्ष-  श्री सीताराम जी  शंकर लाल जी राठौर शामगढ़ 


क्षेत्र सचिव  निम्नवत चुने गए-




आवर से-   श्री लक्ष्मी नारायण जी  पँवार,  अध्यापक 

मोढ़क  से -  श्री प्रभुलाल जी   मकवाना 



बगुनिया से-- श्री मुंशीलाल जी पँवार 





मेलखेड़ा से - श्री  भंवरलाल जी सिसौदिया




खजूरी पंथ से- श्री रामचन्द्र जी पँवार 


हतूनिया से-  श्री  कंवर लाल जी चौहान 



बोलिया से - श्री अमर चंदजी  सोलंकी 

खजूरिया सारंग से - श्री  बंशी लाल जी  राठौर 




कुंतल खेड़ी से- श्री रामलाल जी जादव 
सुसनेर से- श्री नरेंद्र कुमार जी  मोहनलाल जी चौहान 

परामर्शदाता मण्डल मे अनुभवी  बुजुर्ग  व्यक्तियों को  चुना गया  जो इस प्रकार हैं-

मेलखेड़ा से-  नारायण जी  सीसोदिया एवं  





नंदरामजी  सिसौदिया 







शामगढ़ से-  पुरालाल जी राठौर 
सेमली शंकर से - पुराजी गोयल 

डग से -  नानुराम जी   सोलंकी ,






श्री सालगराम जी सोलंकी 




भवानी मंडी से - धुलजी  चौहान 
खजूरी पंथ से - देवीलाल जी पँवार 
आवर से -  जगन्नाथ जी पँवार  और भवानी शंकर जी पँवार 






नांदवेल से- गोरधन लाल जी चौहान 
गुड भेली  से- राधा किशन जी चौहान 
अरनोद से- चम्पालाल  जी चौहान 
रामपुरा से - कारु लाल  जी  मिट्ठूजी  मकवाना 
आसंदीया से - गोपी लाल जी  राठौर 
सुसनेर से -मोहनलाल जी  मकवाना 
मोढ़क से- किशन लाल जी  मकवाना 




हतूनिया से- रंणछोड़ जी चौहान 
मल्हार गढ़ से - नंदलाल जी चौहान  और रामलाल जी  राठौर 
निर्वाचन रजिस्टर  मे निम्न दर्जी बंधुओं ने हस्ताक्षर किए-






भंवर लाल जी  सिसौदिया,मेलखेड़ा
कंवर लाल जी चौहान हतुनिया,


मुंशीलाल जी पँवार बगुनिया 

नंदलाल जी पँवार आवर ,


प्रभुलाल जी  मकवाना  मोढ़क,

लक्ष्मीनारायण जी पँवार आवर
 रामचंदरजी सिसौदिया शामगढ़,





नाथु लाल जी  सोलंकी शामगढ़ ,
जगन्नाथ जी पँवार आवर,



बदरीलाल जी पँवार बगुनिया 

बंशी लाल जी  राठौर खजूरिया सारंग




लक्ष्मी नारायण जी अलौकिक , शामगढ़ 
मोहनलाल जी सिसौदिया मेलखेड़ा 
देवीलाल जी सोलंकी बोलिया 
रामलाल जी मगंनजी कुंतल खेड़ी 






भेरुलाल जी राठोर शामगढ़ 
सोहन लाल जी  सिसौदिया रामपुरा 
मोहनलाल जी मकवाना सुसनेर 




कंवर लाल जी सीसोदिया  शामगढ़ 






गंगाराम जी चौहान शामगढ़
 

रामचन्द्र जी पँवार खजूरी पंथ 

नरेंद्र कुमार जी मकवाना  सुसनेर
सीताराम जी संतोषी  शामगढ़ 
नंदराम जी लसुडिया
देवीलाल जी लसुडिया





मथुरा लाल जी बरडीया अमरा 
नाना लाल जी मकवाना  बर्डीया अमरा 






मांगीलाल जी चौहान ढबला खींची 




29.6.16

संत पीपाजी का जीवन परिचय // Introduction of the life of Saint Peepaji




राजस्थान प्रदेश के झालावाड़ जिला मुख्यालय के निकट आहू और कालीसिंध नदी के किनारे बना प्राचीन जलदुर्ग गागरोन संत पीपाजी की जन्म और शासन स्थली रहा है। इसी के सामने दोनों नदियों के संगम पर उनकी समाधि, भूगर्भीय साधना गुफा और मंदिर आज भी स्थित हैं। उनका जन्म 14वीं सदी के अंतिम दशकों में गागरोन के खीची राजवंश में हुआ था। वे गागरोन राज्य के एक वीर, धीर और प्रजापालक शासक थे। शासक रहते हुए उन्होंने दिल्ली के तत्कालीन सुल्तान फिरोज तुगलक से लोहा लेकर विजय प्राप्त की थी, किन्तु युद्धजन्य उन्माद, हत्या, लूट-खसोट के वातावरण और जमीन से जल तक के रक्तपात को देख उन्होंने तलवार तथा गागरोन की राजगद्दी का त्याग कर दिया था। ऐसे त्याग के तत्काल बाद उन्होंने काशी जाकर स्वामी रामानन्द का शिष्यत्व ग्रहण किया। शिष्य की कठिन परीक्षा में सफल होकर वे स्वामी रामानन्द के बारह प्रधान शिष्यों में स्थान पाकर संत कबीर के गुरुभाई बने। 



उनका जीवन चरित्र देश के महान समाज सुधारकों में एक नायाब नमूना है। इसलिये भक्ति आंदोलन के संत ही नहीं अपितु बाद के समाज सुधारक संतों के लिए वे एक उदाहरण बन गए। उनकी ऐसी विचारधारा के कारण ही वे कई भक्त मालाओं के आदर्श चरित्र पुरुष बनकर लोकवाणियों में गाये गये। संत पीपाजी ने अपनी पत्नी सीता सहचरी के साथ राजस्थान में भक्ति एवं समाज सुधार समन्वय का अलख जगाने में विलक्षण योगदान दिया। उन्होंने उत्तरी भारत के सारे सन्तों को राजस्थान के गागरोन में आने का न्यौता दिया। स्वामी रामानन्द, संत कबीर, रैदास, धन्ना सहित अनेक संतों की मण्डलियों का पहली बार राजस्थान की धरती पर आगमन हुआ और युद्धों में उलझते राजस्थान में भक्ति और समाज सुधार की एक महान क्रांति का सूत्रपात हुआ। पीपाजी और सीता सहचरी ने उसी समय अपना राज्य त्याग कर गागरोन से गुजरात तक संतों की यात्रा का नेतृत्व किया। उन्होंने समुद्र स्थित द्वारका तीर्थ को खोजा और परदु:खकातरता, परपीड़ा तथा परव्याधि की पीड़ा की अनुभूति कराने वाली वैष्णव विचारधारा को जन-जन के लिए समान भावों से जीवनोपयोगी सिद्ध किया।
कालान्तर में गुजरात के महान भक्त नरसी मेहता ने उनकी इसी विचारधारा से प्रभावित होकर ‘वैष्णव जन तो तैने कहिये, पीर पराई जाण रै’ पद लिखा, जो महात्मा गांधी के जीवन में भी प्रेरणादायी सिद्ध हुआ। संत पीपाजी को निर्गुण भावधारा का संत कवि एवं समाज सुधार का प्रचारक माना जाता है। भक्त मीराबाई उनसे बहुत प्रभावित थी, तभी तो उन्होंने लिखा—
‘पीपा को प्रभू परच्यो दिन्हो, दियो रे खजानापूर’।
वहीं भक्तमाल लेखन की परम्परा का प्रवर्तन करने वाले नाभादास ने पीपाजी के जीवन चरित्र पर देश में सर्वप्रथम ‘छप्पय’ की रचना की थी।
संत पीपाजी बाहरी आडम्बरों, थोथे कर्मकाण्डों और रूढिय़ों के प्रबल विरोधी थे। उनका मानना था कि ‘ईश्वर निर्गुण, निराकार, निर्विकार और अनिर्वचनीय है। 




वह बाहर- भीतर, घट-घट में व्याप्त है। वह अक्षत है और जीवात्मा के रूप में प्रत्येक जीव में व्याप्त है।’ उनके अनुसार, ‘मानव मन (शरीर) में ही सारी सिद्धियां और वस्तुएं व्याप्त हैं।’ उनका यह विराट चिन्तन ‘यत्पण्डेतत्ब्रह्माण्डे’ के विराट सूत्र को मूर्त करता है और तभी वे अपनी काया में ही समस्त निधियों को पा लेते हैं। गुरु ग्रन्थ साहिब में समादृत इस महान् विभूति का यह पद इसी भावभूमि पर खड़ा हुआ भारतीय भक्ति साहित्य का कण्ठहार माना जाता है :
अनत न जाऊं राजा राम की दुहाई।
कायागढ़ खोजता मैं नौ निधि पाई॥
उन्होंने अपने विचारों और कृतित्व से भारतीय समाज में सुधार का मार्ग प्रशस्त किया। उन्होंने लोक के कोण से शास्त्र को परखा भी और उसमें परिवर्तन भी किया। सदियों से भारत देश में चली आ रही चतु:वर्ण परम्परा में एक नवीन वर्ण ‘श्रमिक’ नाम से सृजित करने में उन्होंने
महत्ती भूमिका निभाई। उनके द्वारा सृजित यह नवीन वर्ग इस प्रकार का था जो हाथों से उद्यम कर्म करता और मुख से ‘ब्रह्मराम’ का उच्चारण करता था जिसमें कर्म और धर्म का अद्भुत समन्वय था:-
हाथां सै उद्यम करैं, मुख सौ ऊचरै ‘राम’।
पीपा सांधा रो धरम, रोम रमारै राम।
संत पीपाजी सच्चे अर्थों में लोक मंगल की समन्वयी पद्धति के प्रतीक थे। उन्होंने संसार त्याग कर निरी भक्ति करते हुए कभी पलायन करने का संदेश नहीं दिया। वे तो अपने लोक के प्रति इतने समर्पित थे कि वे इसी से अपनी भक्ति के लिये ऊर्जा प्राप्त करते थे। यही कारण है कि मध्ययुगीन भारतीय संतों में उनकी अपनी प्रतिष्ठा है।



वे लोकवाणी के वाहक भी हैं और लोक को समर्पित व्यक्तित्व भी। उनकी समूची वाणी ही लोक के परिष्कार के लिए है। अपनी वाणी में उन्होंने जो कुछ भी कहा उसकी अपनी व्यंजना है। वे सामाजिक समन्वय के महान आख्याता इसलिये हैं कि उन्होंने उस ब्रह्मï से साक्षात्कार कराया जिसकी खोज में मानव आजीवन भटकता है। उन्होंने सच्चे अर्थों में ब्रह्मï के स्वरूप की पहचान पर जोर देते हुए कहा कि ‘उस ब्रह्म की पहचान मन में अनुभव करने से है।’
उण उजियारे दीप की, सब जग फैली ज्योत।
पीपा अन्तर नैण सौ, मन उजियारा होत।
अपने गुरु भाई कबीर का उन्हें बहुत सहारा था, अत: वे उन्हीं की भांति अपने युग के पाखण्ड और आडम्बर के विरुद्ध तनकर खड़े हुए भी दिखाई देते हैं। वे उस सन्त की खुले शब्दों में भत्र्सना करते है जो केवल वेशभूषा से संत होता है, आचरण से नहीं:-
पीपा जिनके मन कपट, तन पर उजरो भेस।
तिनकौ मुख कारौ करौ, संत जना के लेख॥
और फिर वे लोक मंगल के लिए आपसी भेदभाव मिटाने पर भी बल देते 


 


उनके इस विचार में एक महान तात्विक चिन्तन छिपा हुआ है जिसमें एक परात्पर ब्रह्मï राम के प्रति आस्था पर बल है, उनका मानना है कि जब वह तत्व सर्वव्यापी है फिर विप्र, शूद्र का अंतर कैसा? इसी भावना पर वे कहते हैं:-
संतौ एक राम सब मांही।
अपने मन उजियारौ, आन न दीखे कांही॥
संत पीपाजी ने भक्तिमार्ग एवं समाज सुधार की सच्ची भावना को अंगीकार कर जनमत का भेद मिटाने में कोई कसर बाकी नहीं रखी। एक बार वे दौसा में श्री रंगजी भक्त के आश्रम में बैठे थे, उसी समय दो हरिजन स्त्रियां वहां आई। वे अति सुन्दर थीं। पीपाजी ने उन्हें अपने पास ससम्मान बैठाया तथा उनसे कहा कि ‘वे अपना रूप-रंग राम जी की भक्ति नहीं करके व्यर्थ गंवा रही हैं।’ रंगजी ने उनसे कहा कि ‘ये नीच जाति की हैं।’ तब पीपाजी ने उनसे कहा, ‘मैं इन्हें दीक्षा दूंगा ताकि इनका यह लोक व परलोक सुधर जायेगा। ऊंच-नीच का भेद समाप्त करने के लिए ही मैंने इन्हें बुलाया है।’ उस युग में ही पीपाजी ने सामाजिक परदा प्रथा का कठोर विरोध उत्तरी भारत में पहली बार किया। इस बारे में उन्होंने बताया कि ‘जिसमें सच्ची भक्ति और आत्मबल के भाव हैं, उन्हें पर्दा करने की कोई आवश्यकता नहीं है।’ 


उन्होंने कहा:-
जहां पड़दा तही पाप, बिन पडदै पावै नहीं।
जहां हरि आपै आप, पीपा तहां पड़दौ किसौ॥
उन्होंने यह बात केवल वैचारिक धरातल पर ही नहीं की, वरन् उन्होंने उस प्रथा का निवारण पहले अपने जीवन में चरितार्थ करके भी बताया और अपनी पत्नी सीता सहचरी को आजीवन बिना पर्दे के ही रखा, जबकि तत्कालीन राजपूत राजाओं में पर्दा प्रथा का घोर प्रचलन था।
यह कहना असंगत न होगा कि संत पीपाजी का रचना संसार लोक मंगल के लिए भक्ति एवं सामाजिक समन्वय के सच्चे भावों पर आधारित है। आज जब धर्म, नस्ल, जाति, क्षेत्र जैसे भेदों को गहराकर मानवता विरोधी ताकतें सक्रिय हैं, ऐसे में महान संत पीपाजी की वाणी की राह ही हमें अखण्ड मानवता के पक्ष में ले 

जाती है।

 







दर्जी संत नामदेवजी का जीवन परिचय // Introduction of the life of tailor Sant Namdevji




संत नामदेव का जन्म सन १२६९ (संवत १३२७) में महाराष्ट्र के सतारा जिले मेंकृष्णा नदी के किनारे बसे नरसीबामणी नामक गाँव में एक दर्जी परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम दामाशेटी और माता का नाम गोणाई देवी था। इनका परिवार भगवान विट्ठल का परम भक्त था। नामदेव का विवाह राधाबाई के साथ हुआ था और इनके पुत्र का नाम नारायण था।
संत नामदेव ने विसोबा खेचर को गुरु के रूप में स्वीकार किया था। ये संत ज्ञानेश्वरके समकालीन थे और उम्र में उनसे ५ साल बड़े थे। संत नामदेव, संत ज्ञानेश्वर के साथ पूरे महाराष्ट्र का भ्रमण किए, भक्ति-गीत रचे और जनता जनार्दन को समता और प्रभु-भक्ति का पाठ पढ़ाया। संत ज्ञानेश्वर के परलोकगमन के बाद इन्होंने पूरे भारत का भ्रमण किया। इन्होंने मराठी के साथ ही साथ हिन्दी में भी रचनाएँ लिखीं। इन्होंने अठारह वर्षो तक पंजाब में भगवन्नाम का प्रचार किया। अभी भी इनकी कुछ रचनाएँ सिक्खों की धार्मिक पुस्तकों में मिलती हैं। मुखबानी नामक पुस्तक में इनकी रचनाएँ संग्रहित हैं। आज भी इनके रचित गीत पूरे महाराष्ट्र में भक्ति और प्रेम के साथ गाए जाते हैं। ये संवत १४०७ में समाधि में लीन हो गए।
नामदेव वे महाराष्ट्र के प्रसिद्ध संत हो गए हैं। इनके समय में नाथ और महानुभाव पंथों का महाराष्ट्र में प्रचार था। नाथ पंथ "अलख निरंजन" की योगपरक साधना का समर्थक तथा बाह्याडंबरों का विरोधी था और महानुभाव पंथ वैदिक कर्मकांड तथा बहुदेवोपासना का विरोधी होते हुए भी मूर्तिपूजा को सर्वथा निषिद्ध नहीं मानता था। इनके अतिरिक्त महाराष्ट्र में पंढरपुर के "विठोबा" की उपासना भी प्रचलित थी। सामान्य जनता प्रति वर्ष आषाढ़ी और कार्तिकी एकादशी को उनके दर्शनों के लिए पंढरपुर की "वारी" (यात्रा) किया करती थी (यह प्रथा आज भी प्रचलित है) इस प्रकार की वारी (यात्रा) करनेवाले "वारकरी" कहलाते हैं। विट्ठलोपासना का यह "पंथ" "वारकरी" संप्रदाय कहलाता है। नामदेव इसी संप्रदाय के प्रमुख संत माने जाते हैं।
नामदेव का कालनिर्णय
वारकरी संत नामदेव के समय के संबंध में विद्वानों में मतभेद है। मतभेद का कारण यह है कि महाराष्ट्र में नामदेव नामक पाँच संत हो गए हैं और उन सबने थोड़ी बहुत "अभंग" और पदरचना की है।

आवटे की "सकल संतगाथा" में नामदेव के नाम पर 2500 अभंग मिलते हैं। लगभग 600 अभंगों में केवल नामदेव या "नामा" की छाप है और शेष में "विष्णुदासनामा" की।
कुछ विद्वानों के मत से दोनों "नामा" एक ही हैं। विष्णु (विठोबा) के दास होने से नामदेव ने ही संभवत: अपने को विष्णुदास "नामा" कहना प्रारंभ कर दिया हो। इस संबध में महाराष्ट्र के प्रसिद्ध इतिहासकार वि.का. राजवाड़े का कथन है कि "नाभा" शिंपी (दर्जी) का काल शके 1192 से 1272 तक है। विष्णुदासनामा का समय शके 1517 है। यह एकनाथ के समकालीन थे। प्रो॰ रानडे ने भी राजवाड़े के मत का समर्थन किया है। श्री राजवाड़े ने विष्णुदास नामा की "बावन अक्षरी" प्रकाशित की है जिसमें "नामदेवराय" की वंदना की गई है। इससे भी सिद्ध होता है कि ये दोनों व्यक्ति भिन्न हैं और भिन्न भिन्न समय में हुए हैं। चांदोरकर ने महानुभावी "नेमदेव" को भी वारकरी नामदेव के साथ जोड़ दिया है। परंतु डॉ॰ तुलपुले का कथन है कि यह भिन्न व्यक्ति है और कोली जाति का है। इसका वारकरी नामदेव से कोई संबंध नहीं है। नामदेव के समसामयिक एक विष्णुदास नामा कवि का और पता चला है पर यह महानुभाव संप्रदाय का है। इसने महाभारत पर ओवीबद्ध ग्रंथ लिखा है। इसका वारकरी नामदेव से कोई संबध नहीं है।
नामदेव विषयक एक और विवाद है। "गुरुग्रंथ साहब" में नामदेव के 61 पद संगृहीत हैं। महाराष्ट्र के कुछ विवेचकों की धारणा है कि गुरुग्रंथ साहब का नामदेव पंजाबी है, महाराष्ट्रीय नहीं। यह हो सकता है, वह महाराष्ट्रीय वारकरी नामदेव का कोई शिष्य रहा हो और उसने अपने गुरु के नाम पर हिंदी में पद रचना की हो। परंतु महाराष्ट्रीय वारकरी नामदेव ही के हिंदी पद गुरुग्रंथसाहब में संकलित हैं। क्योंकि नामदेव के मराठी अभंगों और गुरुग्रंथसाहब के पदों में जीवन घटनाओं तथा भावों, यहाँ तक की रूपक और उपमाओं की समानता है। अत: मराठी अभंगकार नामदेव और हिंदी पदकार नामदेव एक ही सिद्ध होते हैं।
महाराष्ट्रीय विद्वान् वारकरी नामदेव को ज्ञानेश्वर का समसामयिक मानते हैं और ज्ञानेश्वर का समय उनके ग्रंथ "ज्ञानेश्वरी" से प्रमाणित हो जाता है। ज्ञानेश्वरी में उसका रचनाकाल "1212 शके" दिया हुआ है। डॉ॰ मोहनसिंह दीवाना नामदेव के काल को खींचकर 14वीं और 15वीं शताब्दी तक ले जाते हैं। परंतु उन्होंने अपने मृतसमर्थन का कोई अकाट्य प्रमाण प्रस्तुत नहीं किया। नामदेव की एक प्रसिद्ध रचना "तीर्थावली" है जिसकी प्रामाणिकता निर्विवाद है। उसमें ज्ञानदेव और नामदेव की सहयात्राओं का वर्णन है। अत: ज्ञानदेव और नामदेव का समकालीन होना अंत:साक्ष्य से भी सिद्ध है। नामदेव ज्ञानेश्वर की समाधि के लगभग 55 वर्ष बाद तक और जीवित रहे। इस प्रकार नामदेव का काल शके 1192 से शके 1272 तक माना जाता है।
जीवनचरित्र
नामदेव का जन्म शके 1192 में प्रथम संवत्सर कार्तिक शुक्ल एकादशी को नरसी ब्राह्मणी नामक ग्राम में दामा शेट शिंपी (दर्जी) के यहाँ हुआ था। इनका मन पैतृक व्यवसाय में कभी नहीं लगा। एक दिन जब ये अपने उपास्य आवढ्या के नागनाथ के दर्शन के लिए गए, इन्होंने मंदिर के पास एक स्त्री का अपने रोते हुए बच्चे को बुरी तरह 

से मारते हुए देखा। इन्होंने जब उससे उसका कारण पूछा, उसने बड़ी वेदना के साथ कहा, "इसके बाप को तो डाकू नामदेव ने मार डाला अब मैं कहाँ से इसके पेट में अन्न डालूँ"। नामदेव के मन पर इस घटना का गहरा प्रभाव पड़ा। ये विरक्त हो पंढरपुर में जाकर "विठोबा" के भक्त हा गए। वहीं इनकी ज्ञानेश्वर परिवार से भेंट हुई और उसी की प्रेरणा से इन्होंने नाथपंथी विसोबा खेचर से दीक्षा ली। जो नामदेव पंढरपुर के "विट्ठल" की प्रतिमा में ही भगवान को देखते थे, वे खेचर के संपर्क में आने के बाद उसे सर्वत्र अनुभव करने लगे। उसकी प्रेमभक्ति में ज्ञान का समावेश हा गया। डॉ॰ मोहनसिंह नामदेव को रामानंद का शिष्य बतलाते हैं। परंतु महाराष्ट्र में इनकी बहुमान्य गुरु परंपरा इस प्रकार है -
ज्ञानेश्वर और नामदेव उत्तर भारत की साथ साथ यात्रा की थी। ज्ञानेश्वर मारवाड़ में कोलदर्जी नामक स्थान तक ही नामदेव के साथ गए। वहाँ से लौटकर उन्होंने आलंदी में शके 1218 में समाधि ले ली। ज्ञानेश्वर के वियोग से नामदेव का मन महाराष्ट्र से उचट गया और ये पंजाब की ओर चले गए। गुरुदासपुर जिले के घोभान नामक स्थान पर आज भी नामदेव जी का मंदिर विद्यमान है। वहाँ सीमित क्षेत्र में इनका "पंथ" भी चल रहा है। संतों के जीवन के साथ कतिपय चमत्कारी घटनाएँ जुड़ी रहती है। नामदेव के चरित्र में भी सुल्तान की आज्ञा से इनका मृत गाय को जिलाना, पूर्वाभिमुख आवढ्या नागनाथ मंदिर के सामने कीर्तन करने पर पुजारी के आपत्ति उठाने के उपरांत इनके पश्चिम की ओर जाते ही उसके द्वार का पश्चिमाभिमुख हो जाना, विट्ठल की मूर्ति का इनके हाथ दुग्धपान करना, आदि घटनाएँ समाविष्ट हैं। महाराष्ट्र से लेकर पंजाब तक विट्ठल मंदिर के महाद्वार पर शके 1272 में समाधि ले ली। कुछ विद्वान् इनका समाधिस्थान घोमान मानते हैं, परंतु बहुमत पंढरपुर के ही पक्ष में हैं।
नामदेव के मत
बिसोवा खेचर से दीक्षा लेने के पूर्व तक ये सगुणोपासक थे। पंढरपुर के विट्ठल (विठोबा) की उपासना किया करते थे। दीक्षा के उपरांत इनकी विट्ठलभक्ति सर्वव्यापक हो गई। महाराष्ट्रीय संत परंपरा के अनुसार इनकी निर्गुण भक्ति थी, जिसमें सगुण निर्गुण का काई भेदभाव नहीं था। उन्होंने मराठी में कई सौ अभंग और हिंदी में सौ के लगभग पद रचे हैं। इनके पदों में हठयोग की कुंडलिनी-योग-साधना और प्रेमाभक्ति की (अपने "राम" से मिलने की) "तालाबेली" (विह्वलभावना) दोनों हैं। निर्गुणी कबीर के समान नामदेव में भी व्रत, तीर्थ आदि बाह्याडंबर के प्रति उपेक्षा तथा भगवन्नाम एवं सतगुरु के प्रति आदर भाव विद्यमान है। कबीर के पदों में यततत्र नामदेव की भावछाया दृष्टिगोचर होती है। कबीर के पूर्व नामदेव ने उत्तर भारत में निर्गुण भक्ति का प्रचार किया, जो निर्विवाद है।


 

परलोक गमन


आपने दो बार तीर्थ यात्रा की व साधू संतो से भ्रम दूर करते रहे| ज्यों ज्यों आपकी आयु बढती गई त्यों त्यों आपका यश फैलता गया| आपने दक्षिण में बहुत प्रचार किया| आपके गुरु देव ज्ञानेश्वर जी परलोक गमन कर 

गए तो आप भी कुछ उपराम रहने लग गए| अन्तिम दिनों में आप पंजाब आ गए| अन्त में आप अस्सी साल की आयु में 1407 विक्रमी को परलोक गमन कर गए|
किसी भी संत के दो चरित्र होते हैं | एक धार्मिक दूसरा सामाजिक | धार्मिक चरित्र अर्थात उनके द्वारा रचित काव्य या उनके द्वारा व्यक्त विचार | केन्तु आध्यात्म को लेकर जन मान्यता के दो द्रष्टिकोण हैं | जो धारणा अधिक लोकप्रिय है, वह है समय समय पर उनके क्रिया कलापों से प्रगट चमत्कारों को आध्यात्म से जोड़ कर देखना | किन्तु वस्तुतः जिस कालखंड में संत का जन्म हुआ, उस समय की परिस्थिति क्या थी, और उस परिस्थिति में समाज को धर्म की मूलभूत संकल्पना का मार्गदर्शन संत ने किस प्रकार किया, इससे ही उनके आध्यात्मिक और सामजिक दोनों रूपों का आंकलन होता है |
संत के आध्यात्मिक अभ्युदय का मूल तो उस समय का सामाजिक परिवेश ही होता है | किसी भी धर्म और उसकी संकल्पना का आधार भी तात्कालिक परिस्थितियां ही होती हैं | इसे यूं भी कहा जा सकता है - संत का आध्यात्म ही तात्कालिक राजनीति | जैसे कि महाराष्ट्र में संत नामदेव, संत ज्ञानदेव और आगे चलकर समर्थ स्वामी रामदास – पंजाब में सिख धर्मगुरुओं की परंपरा |
पंजाब में मान्यता है कि संत नामदेव ने पंजाब के गुरुदासपुर जिले में प्रवास करते समय देह त्याग की, इसीलिए वहां संत नामदेव के नाम पर गुरुद्वारा भी बना है | जबकि महाराष्ट्र में मान्यता है कि पंढरपुर में बिट्ठल मंदिर के महाद्वार पर उन्होंने समाधि ली | पर यह प्रश्न श्रद्धा और विश्वास का अधिक है | पर अधिक महत्वपूर्ण प्रश्न है कि इसमें से ध्वनित क्या होता है ?
महाराष्ट्र के गाँव गाँव में, घर घर में संत नामदेव की तस्वीर मिल जायेगी | किन्तु पंजाब सहित देश के हर गुरुद्वारे में सादर स्थित गुरुग्रंथसाहब में नामदेव जी रचित 61 पद होना अपने आप में महत्वपूर्ण भी हैं और उल्लेखनीय भी | जो पद “नामदेव जी की मुखवाणी” में हैं, वे ही पद गुरुग्रन्थ साहब में भी है | अब प्रश्न उठता है कि नामदेव जी ने हिन्दी और पंजाबी में इन पदों की रचना कब की ? 




संत नामदेव के चरित्र में अनेक चमत्कारिक प्रसंगों का वर्णन आता है | उदाहरण के लिए बाल्यकाल में उनकी जिद पर विवश होकर स्वयं आकर बिट्ठल द्वारा नैवेद्य ग्रहण करना, या कि मारवाड़ में पानी भरते समय मिली मृत गाय को जीवित करना आदि | बैसे ही क्या इन पदों को भी चमत्कार ही मान लिया जाए ? किन्तु वास्तविकता यह है कि इन पदों की रचना को समझने के लिए उस काल को समझना होगा |
संत नामदेव का जन्म 1270 में हुआ, और उसके लगभग पांच वर्ष बाद संत ज्ञानदेव हुए, अर्थात दोनों समकालीन ही थे | दोनों ही मराठबाड़ा से थे | यह वह समय था जब देवगिरी पर यादव साम्राज्य था | सत्ता प्राप्ति के लिए किसी भी सीमा तक जाना साधारण बात थी | रामदेव राय ने देवगिरी की सत्ता पर काबिज होने के लिए अपने चचेरे भाई आमण देव की आँखें निकलवाकर उसे कारावास में डाल दिया था | इस अति महत्वाकांक्षी राजा ने सम्पूर्ण दक्षिण पर ही नहीं तो बनारस तक अपनी विजय पताका फहराई थी | नामदेव के 22 वर्ष के होने तक यह सारी कारगुजारियां चल रही थीं |
एक तरफ तो यादव सत्ता वैभव के चरमोत्कर्ष पर थी, तो दूसरी ओर समाज पर पुरोहित वर्ग का बर्चस्व था | कुल मिलाकर वैभव के शिखर पर केवल सत्ताधारी वर्ग था | आज 900 वर्ष बाद भी तो स्थिति यथावत है | ब्राह्मणशाही के बर्चस्व की प्रतिक्रिया में ही महाराष्ट्र में बौद्ध धर्म की सुगबुगाहट प्रारम्भ हुई, किनती जैन मत की जड़ें उससे कहीं अधिक गहरी थीं | इसलाम का अभ्युदय तीसरी वास्तविकता थी, जिसके चलते राजसत्ताएँ अपनी चमक खोती गईं | और यहीं से नामदेव या ज्ञानदेव का सामाजिक चरित्र आकार लेता है |
यादवों के काल में ब्राह्मणों के बर्चस्व से आक्रान्त बौद्ध व जैन महानुभावों ने इस्लाम का आव्हान किया, यह सामजिक ह्रास का तात्कालिक लक्षण था | यही कारण है कि ज्ञानदेव के गीतों में सामाजिक विषमता दूर करने व समाज संगठन की भावना दिखाई देती है | उनके द्वारा प्रस्थापित अद्वैत मत के पीछे की मूल भावना भी वही थी | सामाजिक समता की अभिव्यक्ति “ज्ञानेश्वरी” में स्पष्ट परिलक्षित होती है | यदि स्त्री, शूद्र और पापी भी अन्तःकरण से भक्ति करे, तो उसे भी मुक्ति प्राप्त हो सकती है, वह भी मोक्ष का अधिकारी बन सकता है | उनके इन गीतों ने पुरोहितशाही के विरोध की क्रान्ति को जन्म दिया |
ज्ञानदेव के इस तत्वज्ञान ने भागवत धर्म को नवीन ऊंचाई दी | सुतार, लोहार, महार, कुंभार, चांभार, परीट, नाई, भाट, तेली आदि 12 बड़े समाजों के साथ साथ तंबोली, माली, घडसी, शिपि आदि छोटी जातियों में से भी ख्यातनाम संतों का प्रादुर्भाव हुआ | नामदेव जाति से शिंपी थे, जनाबाई दासी थीं, नरहरी - सुनार, सेना – नाई, गोरा कुंभार, सावता माली तथा बंका महार थे | यह ज्ञानेश्वरी का ही प्रभाव था | ईश्वर की कल्पना के लोकशाहीकरण जेसे धार्मिक वातावरण में नामदेव ने पंढरपुर को अपना केंद्र बनाया |
नामदेव के जीवन की सबसे महत्वपूर्ण घटना है, उनका तीर्थाटन | तीर्थाटन भी अकेले नहीं, संत मंडली के साथ | “तीर्थावली” के अनुसार नामदेव व ज्ञानदेव के अतिरिक्त सावता माली, नरहरी सोनार, चोखामेला, बंका महार, गोरा कुंभार इस मंडली में शामिल थे | महाराष्ट्र गुजरात के तीर्थों के अतिरिक्त उत्तर में गोकुल, वृन्दावन, मथुरा, काशी, प्रयाग होते हुए ये लोग पंजाब तक गए | यह महज तीर्थाटन नहीं था, ये लोग देश के जिस जिस भाग में गए धार्मिक दिशानिर्देश देने का कार्य भी करते गए | स्पष्ट ही यह एक प्रकार से भक्ति मार्ग का प्रचार अभियान तथा इस्लाम के धार्मिक आक्रमण का प्रतिकार भी था |
अलाउद्दीन खिलजी तथा तुर्कों ने 1296 में दिवगिरी पर पहला धावा बोला था | तेरहवीं सदी के प्रारम्भ में शहाबुद्दीन घोरी का दूसरा आक्रमण हुआ | इसी दौरान ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती जैसे सूफी संत दिल्ली आये तथा अजमेर को अपना केंद्र बनाया | भारत में इस्लाम के प्रचार में उनकी सर्वाधिक प्रमुख भूमिका रही | इसी कालखंड में दक्षिण में भी सूफी संतों का आनाजाना शुरू हुआ | स्थानीय राजा को अपने प्रभाव में लेकर गुलबर्गा जिले के शहापुर में इन्होने अपना स्थाई आवास बना लिया | वर्हाड़ में मंगलूपीर तथा कलंदर आदि सूफियों ने स्थानीय राजा की हत्या कर अनेकों को इस्लाम की दीक्षा दी | फिर तो इस्लाम का प्रभाव इतना बढ़ा कि भक्तों के सामने भगवान दत्तात्रय के फकीर वेश में आने की कथाएं जनसामान्य में प्रचलित होने लगीं | ऐसे वातावरण में नामदेव की धार्मिक यात्राओं का महत्व और अधिक है |वस्तुतः दक्षिण में ये यात्राएं उत्तर की तुलना में अधिक चुनौतीपूर्ण व कठिन थीं |
संत ज्ञानेश्वर के समाधि लेने के बाद नामदेव पुन्हः भारत यात्रा करते हैं, यह ध्यान देने योग्य है | वे दक्षिण गए, गुजरात, सौराष्ट्र, सिंध, राजस्थान, मध्यप्रदेश, हिमाचल में न केवल गए, बल्कि लम्बे समय तक रहे, बहां की भाषाएं सीखीं | उनके व्यक्तित्व और विचारों का स्थाई प्रभाव उन क्षेत्रों के लोगों पर पड़ा, जो आज भी दिखता है | दक्षिण की दर्जी जाति के लोग स्वयं को नामदेव लिखते हैं, भूसागर व मल्ला जातियों में भी नामदेव नाम प्रचलन में हैं | राजस्थान के छीपा भी स्वयं का उपनाम नामदेव लिखते हैं | मध्यप्रदेश, गुजरात, राजस्थान, हरियाणा, उत्तरप्रदेश व दिल्ली में नामदेव के मंदिर बने हैं | उस कालखंड व बाद में भी घना, तुलसीदास, कबीर, मीराबाई, नरसी मेहता आदि संतों के वांग्मय में नामदेव के नाम का उल्लेख मिलता है | पंजाब में तो वे अठारह वर्षों तक रहे | 1350 में उनकी मृत्यु के 109 वर्षों बाद नानक आये | और उसके भी 231 वर्षों बाद 1581 में सिक्खों के पांचवें गुरू अर्जुनदेव के काल में गुरूग्रन्थ साहब की निर्मिती प्रारम्भ हुई, जिसमें नामदेव जी के 61 पद हैं | समाज जीवन में उनकी स्मृति ने कितनी गहरी पैठ बनाई थी, यह उसका प्रमाण है |
हमारे समाज जीवन में अनेकों संतों की मालिका है, जिन्होंने समाज को जगाने व उसे सक्षम बनाने का कार्य किया है और जिनका पूण्य स्मरण आज भी समाज को प्रेरणा देता है | उन्हीं में से एक थे बाबा नामदेव | आध्यात्मिक स्फूर्ति के साथ साथ समाज को आत्म विश्वास प्रदान करने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही थी | उनके मुख से निकले कुछ पद इसे ही स्पष्ट करते हैं |
मैं अंधुले की टेक, तेरा नाम खुन्द्कारा |
संसार में अन्धकार व्याप्त है, मेरे जैसे दीन मनुष्य के लिए एक हरिनाम ही आधार है |
यह विचार कर्मकांड की उलझनों व झंझटों से सामान्य जन को त्राण दिलाने वाला था | एक सुगम राह बताने वाला था |
हिन्दू पूजे देहुरा, मुसलमान मसीत,
नामा सोई सेविया, जहाँ देहुरा न मसीत |
हिन्दू देवालयों में व मुसलमान मस्जिदों में पूजा करता है, किन्तु मैं ऐसे स्थान पर भजन करता हूँ, जहाँ न मंदिर है, न मस्जिद |
यह विचार ईश्वर की सर्व व्यापकता को दर्शाता है | नामदेव के जीवन का एक महत्वपूर्ण प्रसंग है, मुसलमान सुलतान द्वारा उन्हें इसलाम स्वीकार करने के लिए बाध्य किया जाना | उनकी माँ घबरा गईं, दुखी होने लगीं | नामदेव ने उन्हें दिलासा दिया –
रुदन करे नामे की माई, छोडी राम कीन भजन खुदाई |
न हौऊ तोर पूंगडा, न तू मेरी माई, पिंडु पडै तऊ हरिगुण गाई |
समाज के बड़े लोग जिस समय मुस्लिम सत्ता का चरण चुम्बन कर रहे थे, उस समय शूद्रातिशूद्र वर्ग में आत्माभिमान जागृत रखने का यह कार्य था | क्यों रोती हैं माँ, न मैं तेरा बेटा हूँ, न तू मेरी माँ है, पिंडदान के बाद तो केवल हरिनाम ही साथी है, उसे छोड़कर किस खुदाई को भजें | मध्ययुग के उस कालखंड में जहाँ एक ओर सारी प्रेरणा धार्मिक थी, तो सारी लड़ाई भी धर्म को लेकर ही थी | नामदेव का संघर्ष “चतुर्वर्ग चिंतामणि” में व्यक्त ब्राहमण धर्म से था तो आक्रामक इस्लाम से भी | इस दृष्टि से ही नामदेव की यात्राएं रणनीतिक ही थी | उसी का परिणाम था कि उन्हें पंजाब से बहोरदास, लद्धा, विष्णुस्वामी, केशव कलधारी, जाल्लो तथा जाल्हण सुतार जैसे शिष्य मिले |
नामदेव का महत्व उनका जन संपर्क व उसके माध्यम से जगाई गई ज्ञानदीप की लौ के कारण है | दूसरे प्रान्तों में जाकर, वहां की भाषा सीखना और वहां की भाषा में साहित्य रचना, ऐसा दुष्कर कार्य उन्होंने किया | वे जहां गए, वहां जाकर जन सामान्य में धर्म जागृति की | तेरहवीं, चौदहवीं शताब्दी में जब कि आज के सामान आवागमन के साधन कल्पनातीत थे, वे महाराष्ट्र से बनारस तक गए | उनके कारण ही पैठण क्षेत्र को दक्षिण की काशी कहा जाता है |
नामदेव का वैशिष्ट्य है कि उनके कारण एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में आनाजाना प्रारम्भ हुआ | इसे आज की भाषा में कहें तो उनके कारण सार्वदेशिक नेटवर्क विकसित हुआ, जिसने संस्कृति व सभ्यता की रक्षा की | आज तो संपर्क व संवाद के लिए इंटरनेट भी है, किन्तु तेरहवी सदी में क्या था ? इस दृष्टि से विचार करें तो नामदेव जी की महानता समझ में आती है | स्वतंत्र भारत में आवश्यकता है नारे और जुमलेबाजी से इतर नामदेव जी के समान जागृति पैदा करने की | हमारे देश में ऐसे ऐसे महापुरुष हुए हैं, यह वरदानी भूमि है, बोलकर सो जाने से काम नहीं चलने वाला | महापुरुषों से प्रेरणा लेकर सतत सक्रिय रहना आवश्यक है |


साहित्यक देन
नामदेव जी ने जो बाणी उच्चारण की वह गुरुग्रंथ साहिब में भी मिलती हैं| बहुत सारी बाणी दक्षिण व महाराष्ट्र में गाई जाती है| आपकी बाणी पढ़ने से मन को शांति मिलती है व भक्ति की तरफ मन लगता है|
ठाकुर को दूध पिलाना
एक दिन नामदेव जी के पिता किसी काम से बाहर जा रहे थे| उन्होंने नामदेव जी से कहा कि अब उनके स्थान पर वह ठाकुर की सेवा करेंगे जैसे ठाकुर को स्नान कराना, मन्दिर को स्वच्छ रखना व ठाकुर को दूध चढ़ाना| जैसे सारी मर्यादा मैं पूर्ण करता हूँ वैसे तुम भी करना| देखना लापरवाही या आलस्य मत करना नहीं तो ठाकुर जी नाराज हो जाएँगे|
नामदेव जी ने वैसा ही किया जैसे पिताजी समझाकर गए थे| जब उसने दूध का कटोरा भरकर ठाकुर जी के आगे रखा और हाथ जोड़कर बैठा व देखता रहा कि ठाकुर जी किस तरह दूध पीते हैं? ठाकुर ने दूध कहाँ पीना था? वह तो पत्थर की मूर्ति थे| नामदेव को इस बात का पता नहीं था कि ठाकुर को चम्मच भरकर दूध लगाया जाता व शेष दूध पंडित पी जाते थे| उन्होंने बिनती करनी शुरू की हे प्रभु! मैं तो आपका छोटा सा सेवक हूँ, दूध लेकर आया हूँ कृपा करके इसे ग्रहण कीजिए| भक्त ने अपनी बेचैनी इस प्रकार प्रगट की -
हे प्रभु! यह दूध मैं कपला गाय से दोह कर लाया हूँ| हे मेरे गोबिंद! यदि आप दूध पी लेंगे तो मेरा मन शांत हो जाएगा नहीं तो पिताजी नाराज़ होंगे| सोने की कटोरी मैंने आपके आगे रखी है| पीए! अवश्य पीए! मैंने कोई पाप नहीं किया| यदि मेरे पिताजी से प्रतिदिन दूध पीते हो तो मुझसे आप क्यों नहीं ले रहे? हे प्रभु! दया करें| पिताजी मुझे पहले ही बुरा व निकम्मा समझते हैं| यदि आज आपने दूध न पिया तो मेरी खैर नहीं| पिताजी मुझे घर से बाहर निकाल देंगे|
जो कार्य नामदेव के पिता सारी उम्र न कर सके वह कार्य नामदेव ने कर दिया| उस मासूम बच्चे को पंडितो की बईमानी का पता नहीं था| वह ठाकुर जी के आगे मिन्नतें करता रहा| अन्त में प्रभु भक्त की भक्ति पर खिंचे हुए आ गए| पत्थर की मूर्ति द्वारा हँसे| नामदेव ने इसका जिक्र इस प्रकार किया है -
ऐकु भगतु मेरे हिरदे बसै||
नामे देखि नराइनु हसै|| (पन्ना ११६३)
एक भक्त प्रभु के ह्रदय में बस गया| नामदेव को देखकर प्रभु हँस पड़े| हँस कर उन्होंने दोनों हाथ आगे बढाएं और दूध पी लिया| दूध पीकर मूर्ति फिर वैसी ही हो गई|
दूधु पीआई भगतु घरि गइआ ||
नामे हरि का दरसनु भइआ|| (पन्ना ११६३ - ६४)
दूध पिलाकर नामदेव जी घर चले गए| इस प्रकार प्रभु ने उनको साक्षात दर्शन दिए| यह नामदेव की भक्ति मार्ग पर प्रथम जीत थी|
शुद्ध ह्रदय से की हुई प्रर्थना से उनके पास शक्तियाँ आ गई| वह भक्ति भव वाले हो गए और जो वचन मुँह निकलते वही सत्य होते| जब आपके पिताजी को यह ज्ञान हुआ कि आपने ठाकुर में जान डाल दी व दूध पिलाया तो वह बहुत प्रसन्न हुए| उन्होंने समझा उनकी कुल सफल हो गई है|


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