उनका जीवन चरित्र देश के महान समाज सुधारकों में एक नायाब नमूना है। इसलिये भक्ति आंदोलन के संत ही नहीं अपितु बाद के समाज सुधारक संतों के लिए वे एक उदाहरण बन गए। उनकी ऐसी विचारधारा के कारण ही वे कई भक्त मालाओं के आदर्श चरित्र पुरुष बनकर लोकवाणियों में गाये गये। संत पीपाजी ने अपनी पत्नी सीता सहचरी के साथ राजस्थान में भक्ति एवं समाज सुधार समन्वय का अलख जगाने में विलक्षण योगदान दिया। उन्होंने उत्तरी भारत के सारे सन्तों को राजस्थान के गागरोन में आने का न्यौता दिया। स्वामी रामानन्द, संत कबीर, रैदास, धन्ना सहित अनेक संतों की मण्डलियों का पहली बार राजस्थान की धरती पर आगमन हुआ और युद्धों में उलझते राजस्थान में भक्ति और समाज सुधार की एक महान क्रांति का सूत्रपात हुआ। पीपाजी और सीता सहचरी ने उसी समय अपना राज्य त्याग कर गागरोन से गुजरात तक संतों की यात्रा का नेतृत्व किया। उन्होंने समुद्र स्थित द्वारका तीर्थ को खोजा और परदु:खकातरता, परपीड़ा तथा परव्याधि की पीड़ा की अनुभूति कराने वाली वैष्णव विचारधारा को जन-जन के लिए समान भावों से जीवनोपयोगी सिद्ध किया।
कालान्तर में गुजरात के महान भक्त नरसी मेहता ने उनकी इसी विचारधारा से प्रभावित होकर ‘वैष्णव जन तो तैने कहिये, पीर पराई जाण रै’ पद लिखा, जो महात्मा गांधी के जीवन में भी प्रेरणादायी सिद्ध हुआ। संत पीपाजी को निर्गुण भावधारा का संत कवि एवं समाज सुधार का प्रचारक माना जाता है। भक्त मीराबाई उनसे बहुत प्रभावित थी, तभी तो उन्होंने लिखा—
‘पीपा को प्रभू परच्यो दिन्हो, दियो रे खजानापूर’।
वहीं भक्तमाल लेखन की परम्परा का प्रवर्तन करने वाले नाभादास ने पीपाजी के जीवन चरित्र पर देश में सर्वप्रथम ‘छप्पय’ की रचना की थी।
संत पीपाजी बाहरी आडम्बरों, थोथे कर्मकाण्डों और रूढिय़ों के प्रबल विरोधी थे। उनका मानना था कि ‘ईश्वर निर्गुण, निराकार, निर्विकार और अनिर्वचनीय है।
वह बाहर- भीतर, घट-घट में व्याप्त है। वह अक्षत है और जीवात्मा के रूप में प्रत्येक जीव में व्याप्त है।’ उनके अनुसार, ‘मानव मन (शरीर) में ही सारी सिद्धियां और वस्तुएं व्याप्त हैं।’ उनका यह विराट चिन्तन ‘यत्पण्डेतत्ब्रह्माण्डे’ के विराट सूत्र को मूर्त करता है और तभी वे अपनी काया में ही समस्त निधियों को पा लेते हैं। गुरु ग्रन्थ साहिब में समादृत इस महान् विभूति का यह पद इसी भावभूमि पर खड़ा हुआ भारतीय भक्ति साहित्य का कण्ठहार माना जाता है :
अनत न जाऊं राजा राम की दुहाई।
कायागढ़ खोजता मैं नौ निधि पाई॥
उन्होंने अपने विचारों और कृतित्व से भारतीय समाज में सुधार का मार्ग प्रशस्त किया। उन्होंने लोक के कोण से शास्त्र को परखा भी और उसमें परिवर्तन भी किया। सदियों से भारत देश में चली आ रही चतु:वर्ण परम्परा में एक नवीन वर्ण ‘श्रमिक’ नाम से सृजित करने में उन्होंने
महत्ती भूमिका निभाई। उनके द्वारा सृजित यह नवीन वर्ग इस प्रकार का था जो हाथों से उद्यम कर्म करता और मुख से ‘ब्रह्मराम’ का उच्चारण करता था जिसमें कर्म और धर्म का अद्भुत समन्वय था:-
हाथां सै उद्यम करैं, मुख सौ ऊचरै ‘राम’।
पीपा सांधा रो धरम, रोम रमारै राम।
संत पीपाजी सच्चे अर्थों में लोक मंगल की समन्वयी पद्धति के प्रतीक थे। उन्होंने संसार त्याग कर निरी भक्ति करते हुए कभी पलायन करने का संदेश नहीं दिया। वे तो अपने लोक के प्रति इतने समर्पित थे कि वे इसी से अपनी भक्ति के लिये ऊर्जा प्राप्त करते थे। यही कारण है कि मध्ययुगीन भारतीय संतों में उनकी अपनी प्रतिष्ठा है।
वे लोकवाणी के वाहक भी हैं और लोक को समर्पित व्यक्तित्व भी। उनकी समूची वाणी ही लोक के परिष्कार के लिए है। अपनी वाणी में उन्होंने जो कुछ भी कहा उसकी अपनी व्यंजना है। वे सामाजिक समन्वय के महान आख्याता इसलिये हैं कि उन्होंने उस ब्रह्मï से साक्षात्कार कराया जिसकी खोज में मानव आजीवन भटकता है। उन्होंने सच्चे अर्थों में ब्रह्मï के स्वरूप की पहचान पर जोर देते हुए कहा कि ‘उस ब्रह्म की पहचान मन में अनुभव करने से है।’
उण उजियारे दीप की, सब जग फैली ज्योत।
पीपा अन्तर नैण सौ, मन उजियारा होत।
अपने गुरु भाई कबीर का उन्हें बहुत सहारा था, अत: वे उन्हीं की भांति अपने युग के पाखण्ड और आडम्बर के विरुद्ध तनकर खड़े हुए भी दिखाई देते हैं। वे उस सन्त की खुले शब्दों में भत्र्सना करते है जो केवल वेशभूषा से संत होता है, आचरण से नहीं:-
पीपा जिनके मन कपट, तन पर उजरो भेस।
तिनकौ मुख कारौ करौ, संत जना के लेख॥
और फिर वे लोक मंगल के लिए आपसी भेदभाव मिटाने पर भी बल देते
उनके इस विचार में एक महान तात्विक चिन्तन छिपा हुआ है जिसमें एक परात्पर ब्रह्मï राम के प्रति आस्था पर बल है, उनका मानना है कि जब वह तत्व सर्वव्यापी है फिर विप्र, शूद्र का अंतर कैसा? इसी भावना पर वे कहते हैं:-
संतौ एक राम सब मांही।
अपने मन उजियारौ, आन न दीखे कांही॥
उन्होंने कहा:-
जहां पड़दा तही पाप, बिन पडदै पावै नहीं।
जहां हरि आपै आप, पीपा तहां पड़दौ किसौ॥
उन्होंने यह बात केवल वैचारिक धरातल पर ही नहीं की, वरन् उन्होंने उस प्रथा का निवारण पहले अपने जीवन में चरितार्थ करके भी बताया और अपनी पत्नी सीता सहचरी को आजीवन बिना पर्दे के ही रखा, जबकि तत्कालीन राजपूत राजाओं में पर्दा प्रथा का घोर प्रचलन था।
यह कहना असंगत न होगा कि संत पीपाजी का रचना संसार लोक मंगल के लिए भक्ति एवं सामाजिक समन्वय के सच्चे भावों पर आधारित है। आज जब धर्म, नस्ल, जाति, क्षेत्र जैसे भेदों को गहराकर मानवता विरोधी ताकतें सक्रिय हैं, ऐसे में महान संत पीपाजी की वाणी की राह ही हमें अखण्ड मानवता के पक्ष में ले
जाती है।
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